Thursday, September 30, 2010

मैं अपना घर ढूँढ रहा हूँ.......




मन्दिर में भी मैं ही हूँ,
मस्जिद में भी मैं ही हूँ।
क्यों लड़ते हो मेरी खातिर,
हर इन्सां में मैं ही हूँ।

क्या नाम बदलने से मेरा,
अस्तित्व बदल जाता है।

कहो राम,रहीम या जीसस,
रस्ता तो मुझी तक आता है।

मंदिर में हो या मस्जिद में,
सब का सर झुकते देखा है।
क्यों फर्क करो तुम मुझ में,
मैंने सब को सम देखा है।

आती हंसी तुम्हारी मति पर,
मेरे नाम पर लड़ते देखा।
ईश्वर, अल्लाह, राम सभी हैं,
क्या इनको भी लड़ते देखा?

जिसने स्वयं रचा है जग को,
तुम घर बना सकोगे उसका?
क्यों व्यर्थ ढूँढ़ते मंदिर में तुम,
मस्जिद में वह रहता है क्या?

जो तुम चाहो मुझे देखना,
झांको अपने अंतर्मन में।
दुखियों के बहते आंसू में,
और किसी के भूके तन में।

मैं अपना घर ढूँढ रहा हूँ,
मुझे नज़र वह कहीं आता।
मंदिर मस्जिद दीवारें हैं,
उनसे क्या है मेरा नाता?

39 comments:

  1. .

    जो तुम चाहो मुझे देखना,
    झांको अपने अंतर्मन में।
    दुखियों के बहते आंसू में,
    और किसी के भूके तन में।..

    Beautiful lines !

    ..

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  2. इस कविता के द्वारा आपने जो व्‍यापक सरोकार वर्णित किया है वह निश्चित रूप से मूल्‍यवान है। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
    मध्यकालीन भारत - धार्मिक सहनशीलता का काल, पढिए!

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  3. प्रतिक्रिया और प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद मनोज जी...आभार...

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  4. ati sundar rachana hai
    isaki bhavon ki jitani tareef ki jay vo kam hai

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  5. Thanx Vivek ji for ur encouragements...regards.

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  6. जिसने स्वयं रचा है जग को,
    तुम घर बना सकोगे उसका?
    क्यों व्यर्थ ढूँढ़ते मंदिर में तुम,
    मस्जिद में वह रहता है क्या?

    सच बात तो यही है...पर कौन इन बहरों को समझाए.
    बहुत सुंदर प्रस्तुति.

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  7. bahut sunder rachana hai aapki
    badhayi

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  8. Kailash, I really liked the poem. In fact, what you have written, is known to each and everybody. Unfortunately, they don't want to put it in practice. I wish to God that your poem, which undoubtedly touches the heart, teach this truth to such personas who are bent upon to divide the society in the name of GOD.
    Regards
    Uday Mohan

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  9. मैं अपना घर ढूँढ रहा हूँ,
    मुझे नज़र वह कहीं न आता।
    मंदिर मस्जिद दीवारें हैं,
    उनसे क्या है मेरा नाता?
    मन्दिर मस्जिद की इन दीवारों के लिये हम खुद को बन्द कर देते है अविश्वास की चारदीवारी में
    बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति

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  10. @अनामिका जी
    @दीप्ति जी
    @उदय
    @वर्मा जी
    प्रतिक्रियाओं और प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद..

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  11. मैं अपना घर ढूँढ रहा हूँ,
    मुझे नज़र वह कहीं न आता।
    मंदिर मस्जिद दीवारें हैं,
    उनसे क्या है मेरा नाता?
    ....बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति

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  12. This comment has been removed by the author.

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  13. कविता जी आपकी प्रतिक्रिया और ब्लॉग से जुड़ने के लिए धन्यवाद....

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  14. मैं अपना घर ढूँढ रहा हूँ,
    मुझे नज़र वह कहीं न आता।
    मंदिर मस्जिद दीवारें हैं,
    उनसे क्या है मेरा नाता?

    bahut khoobsurat kailash ji ....behtareen rachna ke liya badhai sweekarein....

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  15. Aisi dhero kavitaayein...padhne wale hazaaro magar samajhne wale?????

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  16. @Mridula ji,
    @Kshitija ji,
    @Vidushi ji
    Thanks for ur encouraging comments..Regards..

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  17. शर्मा जी,
    नमस्ते!
    अच्छी लगी! काश लोग इसे समझ पाते!
    आशीष
    --
    प्रायश्चित

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  18. बहुत खूबसूरती से अपने उदगार लिखे हैं ...काश लोंग समझ पायें कि हर इंसान में ही भगवान है ..

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  19. @आशीष जी
    @संगीता जी
    प्रतिक्रिया और प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद....आभार

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  20. sach palkein nam hui aapki poem padh kar :)

    shukriya

    http://liberalflorence.blogspot.com/

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  21. Tripat ji, thanx for ur encouraging comments..Regards..

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  22. आदरणीय कैलाश जी
    नमस्कार !
    इन्हीं विचारों की आवश्यकता है । आपने अपनी रचना में बहुत अच्छी तरह से समझा दिया है , सीखले यह ज़माना ।
    मैं अपना घर ढूंढ रहा हूं ,
    मुझे नज़र वह कहीं न आता ।
    मंदिर मस्जिद दीवारें हैं,
    उनसे क्या है मेरा नाता ?

    वाह ! वाऽऽह !

    मैं अपना एक दोहा आपको सादर समर्पित कर रहा हूं -
    मस्जिद - मंदिर तो हुए , पत्थर से ता'मीर !
    इंसां का दिल : राम की , अल्लाह् की जागीर !!


    शुभकामनाओं सहित
    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  23. जो तुम चाहो मुझे देखना,
    झांको अपने अंतर्मन में।
    दुखियों के बहते आंसू में,
    और किसी के भूके तन में।

    बहुत ही सुन्‍दर एवं भावमय कर गई आपकी यह रचना, आभार

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  24. @Vijay ji,
    @Rajendra ji
    @Sada ji
    aapki pratikriya aur protsahan ke liye haardik dhanyavad....aabhar

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  25. बहुत सुन्दर !! आज इसी सोच की जरूरत है... इंसानियत और सच्चे भगवान् की जरुरत है .. भगवान् भी इंसान और सदगुणों को देखता है वो हिन्दू और मुसलमान को नहीं समझता ..

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  26. डॉ.नूतन जी आपके विचारों और प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद.....

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  27. bahut hi sanvedansheel panktiyan hain.... Kash hum sam yeh samajh saken... achhi rachana ke liye aabhar

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  28. बिल्कुल सही चित्र...उम्दा रचना. बधाई.

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  29. ईश्वर तो ऐसा ही होना चाहिए कि गर्दन झुकाई और दीदार कर लिया ...
    अच्छी कविता ...!

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  30. @Dr.Monika ji
    @Udan Tashtari
    @Vanee ji
    Thanx for your visit to my blog and giving encouraging comments...Regards

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  31. वाह पहली बार पढ़ा आपको बहुत अच्छा लगा.

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  32. जो तुम चाहो मुझे देखना,
    झांको अपने अंतर्मन में।
    दुखियों के बहते आंसू में,
    और किसी के भूके तन में ...

    बहुत अच्छा लिखा है ... काश इस बात को हर कोई समझ सके ....

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  33. @संजय जी
    @दिगम्बर जी
    ब्लॉग पर आने और अपनी प्रतिक्रिया दे कर प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद..आभार

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  34. जिसने स्वयं रचा है जग को,
    तुम घर बना सकोगे उसका?
    क्यों व्यर्थ ढूँढ़ते मंदिर में तुम,
    मस्जिद में वह रहता है क्या?

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