Saturday, November 27, 2010

अनाम रिश्ता

कितना हालात ने लाचार किया है मुझको,
पोंछ सकता नहीं आँखों से तुम्हारे आंसू.
मैं यह सह लेता,अगर हाथ किसी का बढ़ता,
देख सकता नहीं दिन रात ये बहते आंसू.


        गर मिला होता कोई कांधा तुम्हें रोने को,
        फेर कर नज़रें, मैं हट जाता तेरी राहों से.
        होता बस में मेरे, दे देता उजाले अपने,
        सर्द रातों को तपा देता,  मेरी साँसों से.


अब न रिश्ता, न कोई हक़ है करीब आने का,
सिर्फ अहसास का अनजान सा है एक नाता.
ज़िस्म के रिश्ते छुपे रहते हैं चादर में यहाँ,
सिर्फ ज़ज्बात का रिश्ता ही है पत्थर खाता.


        कह  नहीं सकता कि अब आओ कहीं दूर चलें,
        जब ज़मीं अपनी नहीं, आसमां क्यों कर होगा.
        बंद खिड़की ये करो, हसरतें जगती  दिल में,
        खुश्क हैं आँख, मगर दिल भी न क्या तर होगा. 

Monday, November 01, 2010

कैसे दीप जलाऊं मैं


बचपन भीख मांगता है जब चौराहे पर,
यौवन की उम्मीद है बिकती जब कोठे पर.
और बुढ़ापे की सूनी आँखें भी मौत ढूँढती,
 कैसे दीप जलाऊं मैं, बतलाओ  दर पर.

            कहीं रोशनी इतनी आँखें चुंधियाँ जाती,
            कहीं अँधेरा इतना, रजनी ठोकर खाती.
            हैं दोनों इंसान, मगर यह अंतर क्यों है ?
            बेच रहे क्यों झूठ कि यह किस्मत की थाती.

भूखे पेट, नग्न तन बच्चे, ढूंढ  रहे  कूड़े में  खाना,
साड़ी फटी झांकते तन पर,गिद्ध द्रष्टि का लगा निशाना.
बनें योजना कागज़ पर ही,रोटी कपड़ा और मकान की,
भ्रष्ट दानवी  हाथों से लेकिन मुश्किल है कुछ बचपाना.

            जब तक हर भूखे को रोटी, निर्वस्त्रों को वस्त्र न होंगे,
            जब तक नारी की आँखों में लाचारी के अश्रु जो होंगे.
            जब तक किलकारी न होगी हर आँगन में बचपन की,
            याद रखो भगवन मेरे घर, पकवानों के थाल न होंगे.