Saturday, June 25, 2011

बरगद का दर्द

उदास है बरगद
अपने साये में छाये 
सन्नाटे से.

खोगयी हैं 
किलकारियां
छाया में खेलते 
बच्चों की,
गुम हो गये हैं
नौजवान,
जो करते थे चर्चा
अपने प्रेम की
उसकी छाया में.

आज बैठे हैं मौन
कुछ चेहरे
अपनी झुर्रियों में 
कितने दर्द की परतें चढाये,
ताकते उस सड़क को
जिससे अब कोई नहीं आता,
क्योंकि
युवा और बच्चे
खो गये हैं दूर
कंक्रीट के जंगल में
और भूल गये हैं रस्ता
बरगद तक वापिस आने का.

Thursday, June 23, 2011

वैधव्य

                    (On International Widows Day)

छूटा नहीं था 
रंग अभी मेंहदी का
पर टूट गयीं
चूड़ी लाल हाथों की
और पुछ गया
सिन्दूर माथे का.

नहीं देखा किसी ने 
मेरे अरमानों का ज़लना,
मेरे सपनों का बिखरना,
मेरा दर्द
बीच राह में लुट जाने का,
और थोप दिया 
सारा दोष मेरे ऊपर
लगा कर एक दाग 
मेरे माथे पर
शापित, दुर्भागी
और कलंकनी होने का.

क्या देखा है
किसी पुरुष को
विधुर होने पर
अभिशापित होने का
दाग लगते हुए,
अकेलेपन का बोझ ढ़ोते
या समाज से
बहिष्कृत होते हुए.

फिर क्यों?
फिर क्यों औरत को
विधवा होने पर
बना दिया जाता है
अभागी,
अनपेक्षित
और शापित,
और छोड़ दिया जाता है
बनारस या बृन्दावन की 
गलियों में,
बैठने को कोठे पर
या फ़ैलाने को हाथ
गैरों के सामने
माँगने को भीख.

क्यों जलना होता है
हमेशा औरत को ही,
कभी सती बनकर,
और कभी तिल तिल कर
तिरष्कृत और अकेले
वैधव्य का बोझ ढ़ोते.
क्यों कर दिया जाता है
हमेशा मुझे ही शापित?

Sunday, June 19, 2011

पितृ प्रेम को शब्द नहीं है


गीत लिखे माँ की ममता पर, 
प्यार पिता का किसने देखा,
माँ  के  आंसू  सबने  देखे,  
दर्द पिता का किसने देखा.

माँ की ममता परिभाषित है, 
पितृ प्रेम  को  शब्द  नहीं है,
कितने अश्क छुपे पलकों में, 
वहां झाँक कर किसने देखा.

उंगली पकड़ सिखाया चलना, 
छिटक दिया है उन हाथों को,
तन की चोट सहन हो जाती, 
मन  का घाव न  भरते देखा.

दर्द  छुपा कर  बोझ  उठाया, 
झुकने दिया नहीं कन्धों को,
कोई  रख दे  हाथ  प्यार  से, 
इन्हें  तरसते  किसने  देखा.

विस्मृत हो जायें कटु यादें, 
मंजिल पर जाने  से पहले,
हो जायें  ये  साफ़  हथेली, 
मिट जायें रिश्तों की रेखा.

Wednesday, June 15, 2011

मत रिश्तों की आज दुहाई मुझको दो

(On World Elder Abuse Awareness Day)

मत रिश्तों  की आज  दुहाई मुझको दो,
दर्द मिला है बहुत मुझे रिश्ते अपनों से.

कहाँ खून के रिश्ते, जब नस नस में पानी,
नहीं  ह्रदय में  प्यार, यहाँ  रिश्ते  बेमानी.
आस लगा कर क्यों बैठा शीतल फुहार की,
सुखा गया स्वारथ मरुथल, नयनों का पानी.

अब तो जीवन सांझ, अँधेरा घिरने को है,
सोना  भी है कठिन, लगे है डर  सपनों से.

हाथ  बढ़ाया  दादी माँ ने, जब  अपना  बचपन  छूने को,
ठिठक गयी ममता, आँखों में अपनों की देखा वर्जन को.
कितनी बार झांक कर देखा, कितनी बार भिगोया तकिया,
इतना  दर्द नहीं होता, गर वन्ध्या भी कहते सब उसको.

नहीं वेदना देखी जाती उस औरत की,
टूट गए हों सपने जब हाथों अपनों के.

कंटक  भरी  राह  पर  चलते, रहे  उठाये  भारी  गठरी,
तपते  रहे  धूप में  लेकिन रहे  उठाये  उन  पर  छतरी.
कम्पित हाथ, लड़खड़ाते पग, आँखों के धुंधलायेपन ने,
सिर्फ प्यार का संबल चाहा,नहीं आस कोई प्रतिफल की.

उसे न दे पाऊँगा मैं अधिकार अग्नि देने का,
निभा  दिए हैं  फ़र्ज़, ज़ला  रिश्ते  अपनों  से.

पैदा  होता  गैर  हाथ  में, जाता  गैरों  के  कन्धों  पर,
व्यर्थ किया सारा जीवन, बस अंतराल के संबंधों पर.
गँवा दिया यौवन का सूरज,आस दीप की संध्या पल में.
काली रात बितानी होगी, नज़र टिकाये बस तारों पर.

व्यर्थ आस कि जाये कन्धों पर अपनों के,
कंधे  तो कंधे  हैं, गैरों के हों  या अपनों के. 

Sunday, June 12, 2011

जनता को कमजोर न समझो

कहाँ  गये  बापू  के  सपने?
कहाँ गयी है सत्य अहिंसा?
कहाँ  हुई है  गुम मानवता?
बढती जाती है क्यों हिंसा?

जितना ज्यादा जो धनवाला,
उतनी धन  की  भूख  बड़ी है.
रिश्वत से क्या  टाल सकोगे,  
अगर  सामने   मौत खड़ी है.

सेवा  करने का वादा कर,
वोट  माँगने घर पर आये.
सत्ता मिलते ही पल भर में,
सब उसूल ताक धर आये.

जनता जब इंसाफ मांगती,
तुमको सहन नहीं हो पाता.
धन की  चकाचौंध  से अंधे,
भूल   गये  गांधी से  नाता.

लेकर शपथ अहिंसा की तुम,
अब हिंसा को गले लगाते.
सोये  हुए पुरुष, नारी  पर,
तुम  लाठी से वार कराते.

नहीं  हमारे शास्त्र  सिखाते,
करना वार निहत्थे जन पर.
यह तो एक निशाचरवृति है,
हाथ  उठाये  सोते जन  पर.

जनता को कमजोर न समझो,
सोते  शेरों  को  नहीं  जगाओ.
सत्ता  मद में  चूर न  हो  तुम,
कहीं न फिर ठोकर खा जाओ.

Thursday, June 09, 2011

एक और जालियांवाला बाग


जालियांवाला बाग 
की बर्बरता
है केवल एक इतिहास
जिसे सिर्फ़ पढ़ा
और महसूस किया था.

यह सही है
इतिहास दोहराता है
अपने आप को,
लेकिन किसने सोचा 
कि स्वतंत्र भारत में
वह बर्बरता फिर जीवंत होगी
राम  लीला मैदान में,
लेकिन इस बार 
लाठी खाने वाले
और लाठी उठाने वाले
होंगे अपने ही देश के.

Friday, June 03, 2011

पतंग

पतंग बनकर
रह गयी है
ज़िंदगी.

छूती है कभी ऊँचाई 
आसमान की,
कट कर गिर जाती है
कभी ज़मीन पर
और पहुँच जाती है
किसी और के हाथों में.
उड़ने, कटने
और गिरने का क्रम
रहता है जारी 
ज़िंदगी भर.

उड़ती है,
गिरती है,
फटती है,
और हर बार 
फिर एक चेपी का बोझ
बढ़ जाता है
फिर से उड़ने में.

कई बार कटने पर 
फंस जाती है
किसी ऊँचे पेड़ की शाखा में,
और ज़िंदगी गुज़र जाती है
हवाओं के थपेड़े खाते
और शाखाओं से
सुलझाने में ड़ोर को.

कितने हाथों में बदली
ड़ोर पतंग की,
लेकिन कटने के बाद
भूल गया वह पतंग को
और घड़ी करने लगा ड़ोर
फिर से चरखी पर,
दूसरी पतंग को उड़ाने को.

नहीं मिली कोई ड़ोर
न कोई हाथ
जो रहता साथ,
और उड़ती रहती मैं
एक ही हाथ में
एक ही ड़ोर के सहारे
उम्र भर.