Friday, August 31, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (३०वीं-कड़ी)


        सातवाँ अध्याय 
(ज्ञानविज्ञान-योग-७.१३-२३

त्रिगुण भाव से मोहित होकर,
सारा जगत भ्रमित है रहता.
लेकिन मेरे अव्यय स्वरुप से, 
इस कारण अनजान है रहता.  (१३)

मेरी दैवी गुणमयी ये माया,
पार है मुश्किल से कर पाते.
जो आता है शरण में मेरी 
वे दुस्तर माया से तर जाते.  (१४)

अधम,मूर्ख,दुष्कर्मी जन का
ज्ञान नष्ट माया से होता.
मेरी शरण नहीं वह आता,
जो आसुरी स्वभाव का होता.  (१५)

सत्कर्मी जो मुझको भजते
साधक चार प्रकार के होते.
पीड़ित दुःख से या जिज्ञासु,
धन इक्षुक या ज्ञानी होते.  (१६)

ज्ञानी भक्त श्रेष्ठ इन सब में,
भक्ति अनन्य,एकाग्र है रहता.
बहुत अधिक उसे मैं प्रिय हूँ,
वह भी मुझे बहुत प्रिय रहता.  (१७)

सभी भक्त महान हैं होते,
लेकिन ज्ञानी मेरा स्वरुप है.
हो एकाग्र चित्त वो मुझ में 
माने मुझमें ही परमगति है.  (१८)

कई जन्म लेने के बाद में,
समझे जग वासुदेव रूप है.
मुझे प्राप्त होता वह ज्ञानी,
पर ऐसा महात्मा दुर्लभ है.  (१९)

नष्ट ज्ञान कामनाओं से,
अन्य देव की शरण में जाते.
वशीभूत अपने स्वभाव से
विहित नियम उनके अपनाते.  (२०)

भक्त जो जिस देवमूर्ति की
पूरी श्रद्धा से पूजा है करता.
उस उस भक्त की श्रद्धा को 
मैं उस देव में स्थिर करता.  (२१)

उस श्रद्धा से युक्त है होकर
देव है जिसको वह अराधता.
उससे ही वांक्षित फल पाता,
लेकिन मैं ही वह फल दाता. (२२)

अल्पबुद्धि इन भक्तों को 
पाने वाला फल नश्वर है.
पूजक देव उन्हें ही पाते,
मुझको पाते मेरे भक्त हैं.  (२३)

            ......क्रमशः

कैलाश शर्मा 

Tuesday, August 28, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (२९वीं-कड़ी)

       सातवाँ अध्याय 
(ज्ञानविज्ञान-योग-७.१-१२

श्री भगवान 

पार्थ लगा मन पूर्ण रूप से
यदि तुम योगाभ्यास करोगे.
मेरे आश्रय में निश्चित ही 
तुम मेरा समग्र रूप जानोगे.  (१)

विज्ञान सहित जो तत्व ज्ञान है,
मैं सम्पूर्ण हूँ वर्णन करता.
जिसे जान लेने पर जग में,
कुछ और जानने योग्य न बचता.  (२)

मनुज सहस्त्रों में से कोई
एक सिद्धि को यत्न है करता.
सिद्धि यत्न करने वालों में,
मेरा तत्व कोई एक समझता.  (३)

है विभक्त आठ भेदों में 
मेरी प्रकृति जान लो अर्जुन.
पृथ्वी, जल, अग्नि व नभ, 
वायु, बुद्धि, दम्भ और मन.  (४) 

जो है विभक्त आठ भेदों में 
वह मेरी निक्रष्ट प्रकृति है.
जिससे जग हूँ धारण करता,
जीव रूप वह श्रेष्ठ प्रकृति है.  (५)

मेरी ही इन दोनों प्रकृति से
समस्त विश्व उत्पन्न है होता.
मैं ही सृजक सम्पूर्ण विश्व का,
एवं मैं ही उसका संहारक होता.  (६)

नहीं उच्चतर मुझसे अर्जुन
कोई वस्तु है सर्व विश्व में.
धागे में मनकों के जैसा 
विश्व पिरोया हुआ है मुझमें.  (७)

जल में स्वाद,प्रभा रवि शशि में,
हूँ ओंकार समस्त वेदों में.
शब्द हूँ मैं आकाश में अर्जुन,
व पुरुषत्व सभी पुरुषों में.  (८)

मैं पवित्र गंध पृथ्वी में,
व अग्नि में तेज भी मैं हूँ.
जीवन हूँ मैं सब प्राणी में
और तपस्वियों में तप हूँ.  (९)

सर्व चराचार जग का अर्जुन
बीज सनातन मुझे ही जानो.
बुद्धिमान की बुद्धि भी मैं हूँ,
तेजस्वी का तेज भी मानो.  (१०)

रहित काम और राग से जो हैं 
उन बलशाली का बल भी मैं हूँ.
जो अनुकूल धर्म के रहता 
प्राणीजन में वह काम भी मैं हूँ.  (११)

सत्, रज, तम भाव भी अर्जुन,
मुझ से ही उत्पन्न हैं मानो.
मैं न कभी आधीन हूँ उनके,
उनको मेरे आधीन ही जानो.  (१२)

          ........क्रमशः

कैलाश शर्मा 

Friday, August 24, 2012

मैंने हार अभी न मानी

धूल धूसरित चाहे तन हो,
रोटी चाहे मिली हो आधी.
मैंने हार अभी न मानी,
जिजीविषा अब भी है बाकी.

सोने को बिस्तर क्या होता,
सिर पर कभी न छत है देखी.
उलझे बाल हैं किस्मत जैसे,
पर होठों पे मुस्कान है बाकी.

दोष नहीं देती ईश्वर को,
उसने सबको दिया बराबर.
कुछ ने लूट लिया है पर सब,
लेकिन शक्ति हाथों में बाकी.

कागज़ पर ही बने योजना,
रोटी, शिक्षा स्वप्न है मुझको.
मिटे गरीबी कागज़ पर ही,
जब तक भ्रष्टाचार है बाकी.

पत्थर को जो तोड़ सके है,
हर आंधी को है सह सकती.
आज तुम्हारे हाथों सब कुछ,
पर मेरी किस्मत भी बाकी.

जिस दिन पाप घड़ा फूटेगा,
नज़र चुराओगे खुद से भी.
जग का न्याय खरीद लिया है,
मेरा न्याय मगर है बाकी.

कैलाश शर्मा 

Monday, August 20, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (२८वीं-कड़ी)

छठा अध्याय 
(ध्यान-योग- ६.३७-४७) 

अर्जुन 

होकर श्रद्धावान भी जो जन,
चंचल मन से विचलित होता.
तो वह किस गति को पाता है
योग सिद्धि जब प्राप्त न होता.  (३७)

भ्रष्ट कर्म, ज्ञान दोनों ही पथ से
क्या वह नहीं निराश्रय होता?
क्या ब्रह्ममार्ग में मोहित साधक
छिन्न भिन्न बादल सम होता?  (३८)

कृष्ण! नहीं कोई समर्थ है
जो यह संशय दूर कर सके.
सिर्फ आपके और न दूजा,
जो यह संशय नष्ट कर सके.  (३९)

श्री भगवान 

लोक परलोक दोनों में अर्जुन,
उसका नाश नहीं है होता.
जो जन शुभ कर्मों को करता,
दुर्गति प्राप्त कभी न होता.  (४०)

लोक पुण्य आत्माओं का पाकर,
योग भ्रष्ट वहाँ रहता है.
पुनः पवित्र धनिकों के घर में 
वर्षों बाद जन्म पाता है.  (४१)

गुणी योगनिष्ठों के घर में,
अथवा जन्म प्राप्त करता है.
दुर्लभ अत्यंत लोक में होता,
ऐसा जन्म प्राप्त करता है.  (४२)

पूर्व जन्म में अर्जित बुद्धि 
पुनः प्राप्त वहां है करता.
पहले से ज्यादा प्रयत्न से
मोक्ष प्राप्ति में है लगता.  (४३)

पूर्वाभ्यास योग के कारण,
योगसाधना आकर्षित करता.
समत्व योग का जिज्ञासु वह,
शब्द ब्रह्म को पार है करता.  (४४)

यत्नपूर्व कोशिश कर योगी,
पाप रहित, शुद्ध हो जाता.
जन्मान्तरों में सिद्धि पाकर,
अंत परम गति को है पाता.  (४५)

श्रेष्ठ है योगी तप साधक से,
ज्ञानी से भी श्रेष्ठ है योगी.
श्रेष्ठ अग्निहोत्री से भी वह,
अर्जुन तुम बन जाओ योगी.  (४६)

ऐसे समस्त योगियों में भी जो
अंतर्मन से आसक्त है मुझ में.
श्रद्धायुक्त जो मुझको भजता,
सब से श्रेष्ठ है वह मेरे मत में.  (४७)

               .......क्रमशः

*****छठा अध्याय समाप्त***** 

कैलाश शर्मा 

Thursday, August 16, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (२७वीं-कड़ी)

छठा अध्याय
(ध्यान-योग - ६.२६-३६) 


चंचल मन हो कर आकर्षित,
जब विचलित हो इधर उधर.
लौटा कर के उसे वहाँ से, 
उसे आत्म में ही स्थिर कर.  (२६)

रज गुण से जो मुक्त हो गया,
पूर्ण शान्त उसका मन होता.
है पाप रहित ऐसा जो योगी 
उत्तम सुख को प्राप्त है होता.  (२७)

मन को करके ऐसे वश में,
आत्मा में एकाग्र है करता.
पाप रहित ऐसा वह योगी,
परम मोक्ष का सुख लभता.  (२८) 

एकाग्र चित्त, समदृष्टि योगी,
आत्मा अपनी देखे सब जन में.
भेद भाव से रहित है हो कर, 
सर्व सृष्टि देखे निज मन में.  (२९)

मुझको देखे प्राणिमात्र में,
प्राणिमात्र मुझमें है देखता.
न अदृश्य मैं होता उसको,
वह अदृश्य न मुझसे रहता.  (३०)

सब जन में स्थित जो मुझको
बिना भेद भाव के है भजता.
सर्व कर्म करता वह योगी, 
मुझ में ही निवास है करता.  (३१)

सुख प्रिय दुःख अप्रिय मुझको,
वैसे ही अर्जुन औरों को होता.
अपने सदृश्य देखता सबको,
परम श्रेष्ठ योगी है वह होता.  (३२)

अर्जुन

हे मधुसूदन! समभाव योग है
दीर्घ काल क्या स्थिर होगा?
मन की चंचलता के कारण
कैसे स्थिर स्थिति में होगा?  (३३)

तन व इन्द्रिय क्षुब्ध है करता,
मन स्वभाव से ही चंचल है.
निग्रह इस बलवान चित्त का,
वायु बांधने सम मुश्किल है.  (३४)

श्री भगवान

निश्चय कठिन है मन वश करना,
यह है बहुत ही चंचल अर्जुन.
लेकिन अभ्यास वैराग्य के द्वारा,
इसका निग्रह भी है संभव.  (३५)

नहीं संयमित चित्त है जिसका,
कठिन बहुत यह योग है पाना.
आत्मा पर जिसका वश होता,
संभव योग इस युक्ति से पाना.  (३६)

              .......क्रमशः

कैलाश शर्मा 

Monday, August 13, 2012

इंतज़ार धूमिल आँखों का


जिनके लिए पाले थे स्वप्न
अपने स्वप्नों को कुचल कर,
उठाये रहे जिनको हमेशा गोदी में,
आज ज़िंदगी के आख़िरी पहर में
छोड़ गये वृद्धाश्रम में,
क्योंकि उठा न पाए 
माता पिता का भार,
और फ़िर भी धूमिल आँखें 
ताकती हैं राह
इंतज़ार में अब भी उन के.

कैलाश शर्मा 

Friday, August 10, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (२६वीं-कड़ी)

              **श्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनायें**

छठा अध्याय
(ध्यान-योग - ६.१६-२५) 


भोज व उपवास अधिक भी, 
योग सिद्धि में बाधक होता.
निद्रा या जागरण ज्यादा, 
न योग सिद्धि में साधक होता.  (१६)

जिसका आहार विहार संयमित, 
कर्मों में प्रयास नियमित है.
दुःख हर्ता योग सिद्ध है होता, 
सोना जगना यदि नियमित है.  (१७)

करके चित्त संयमित है जो 
आत्मा में ही स्थिर होता.
निस्पृह सर्व कामना हो कर, 
वह स्थिर है योग में होता.  (१८)

वायु विहीन जगह पर स्थित
दीपक लौ न कम्पित होती.
चित्त संयमित जिस योगी का, 
सुस्थिर आत्म बुद्धि है होती.  (१९)

योगाभ्यास करने से जिसका
चित्त पूर्णतः निवृत्त है होता.
आत्मा से आत्मा को देखता, 
आत्मा में ही संतुष्ट है होता.  (२०)

उस परमानन्द का अनुभव, 
जिसे अतीन्द्रिय बुद्धि से होता.
होकर स्थित उसमें वह योगी, 
नहीं आत्म से विचलित होता.  (२१)

परम आत्म सुख लाभ प्राप्त कर, 
अन्य लाभ की चाह न रखता.
उस सुख में स्थित योगी को, 
दुःख भी गहन न विचलित करता.  (२२)

दुःख से रहता पूर्ण रहित है, 
उस स्थिति को योग हैं कहते.
अनुद्विग्न मन की कोशिश से, 
इसी योग में स्थित हैं रहते.  (२३)

संकल्प जनित सभी कामनायें, 
और वासनाओं को तज के.
योगाभ्यास चाहिए करना, 
सभी इंद्रियां मन से वश कर के.  (२४)

स्थिर हुई बुद्धि के द्वारा, 
शनै शनै अभ्यास से मन को.
पूर्ण आत्मा में स्थिर कर, 
चिंतन भी न करे अन्य को.  (२५)

                ........क्रमशः
कैलाश शर्मा

Monday, August 06, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (२५वीं-कड़ी)

छठा अध्याय
(ध्यान-योग - ६.०१-१५) 


श्री भगवान 


अनासक्त हो कर्म फलों से
कर्तव्य समझ कर्म जो करता.
वह ही सच्चा योगी सन्यासी,
न वह जो यज्ञ कर्म को तजता.  (१)


कहते हैं सन्यास जिसे सब,
उसे योग ही जानो अर्जुन.
बिना कर्म फल इच्छा त्यागे
होता नहीं कोई योगी जन.  (२)


जो मुनि योग प्राप्ति का इच्छुक 
उसको कर्म है साधन होता.
प्राप्त योग कर लिया है जिसने
शान्ति मुक्ति का कारण होता.  (३)


इन्द्रिय विषय और कर्मों में 
जो जन है आसक्त न होता.
सर्व कामनाओं को तजकर 
'योगारूढ़' है वह जन होता.  (४)


उद्धार स्वयं का आत्म ज्ञान से,
करो न कलुषित कभी आत्मा.
है आत्मा ही आत्मा का बंधु,
व आत्मा का शत्रु भी आत्मा.  (५)


जिसने स्वयं आत्म को जीता,
आत्मा उसकी आत्मा की बंधु.
संयम नहीं स्वयं आत्मा पर,
होती आत्मा ही है उसकी शत्रु.  (६)


जीत लिया आत्मा को जिसने,
जिसका मन प्रशांत है होता.
सुख दुःख,यश अपयश में सम है,
स्थित परमात्मा में वह होता.  (७)


ज्ञान विज्ञान से चित्त तृप्त है,
दोष रहित, संयमित इन्द्रिय.
मिट्टी, पत्थर, स्वर्ण एक सम,
योगारूढ़ कहाता है जन वह.  (८)


सुह्रद, मित्र, उदासीन या शत्रु,
द्वेष योग्य, मध्यस्थ, बंधु है.
साधू, पापी,समबुद्धि है सब में 
कहलाता जन वही श्रेष्ठ है.  (९)


एकांत वास करे वह योगी,
करके मन को पूर्ण संयमित.
इच्छा रहित, अपरिग्रह होकर,
मन को करे ब्रह्म में स्थित.  (१०)


स्वच्छ जगह पर आसन हो, 
न ऊँचा या नीचा, हो स्थिर.
कुश, मृग चर्म, वस्त्र बिछे हों.
उस आसन पर वहाँ बैठ कर.  
संयमित चित्त व इन्द्रिय
व एकाग्र है मन को करके.
योगाभ्यास चाहिए करना,
हेतु पूर्ण मन की शुद्धि के.  (११-१२)


काया, सिर एवम् ग्रीवा को
सीधा व स्थिर रख कर के.
इधर उधर न दृष्टि घुमाये,
दृष्टि नासाग्र स्थिर करके.  (१३)


शांत और निर्भय मन होकर,
ब्रह्मचर्य व्रत पालन करके.
मन को हटा सभी विषयों से,
योगयुक्त,मन मुझ में करके.  (१४)


कर के एकाग्र सदा मन योगी,
मन को सदा संयमित रखता.
होता जो मेरे स्वरुप में स्थित,
परम शान्ति निर्वाण है लभता.  (१५)


                    ........क्रमशः


कैलाश शर्मा 

Friday, August 03, 2012

तलाश एक मोड़ की

             (१)
चुभने लगती जब आँखों में 
सुदूर सितारों की रोशनी भी,
हर सीधी राह भी 
जगा देती एक डर 
भटक जाने का,
रिश्तों की हर डोर 
जब हो जाती कमज़ोर
बार बार टूटने 
और गाँठ लगने से.


तब चाहती ज़िंदगी
एक ऐसा अनज़ान मोड़ 
न हो जिसकी कोई मंज़िल,
जो छुपा ले अस्तित्व 
और मन का अँधियारा
किसी गहन अँधेरे कोने में. 


             (२)
क्यों हो जाती हैं राहें
शामिल वक़्त की साजिश में
और भटका देती हैं राही
किसी न किसी मोड़ पर.


कंक्रीट के ज़ंगल में 
ढूँढता है अपना अस्तित्व 
और अपनी आवाज़
जो खोगयी कोलाहल में मौन के,
न जाने किस मोड़ पर. 



कैलाश शर्मा