Wednesday, April 24, 2013

इंसानियत कराह रही अब मेरे शहर में


                                  (चित्र गूगल से साभार)

दहशतज़दा है हर चेहरा मेरे शहर में,
इंसान नज़र आते न अब मेरे शहर में.

अहसास मर गए हैं, इंसां हैं मुर्दों जैसे,
इक बू अज़ब सी आती है मेरे शहर में.

हर नज़र है कर जाती चीर हरण मेरा,
महफूज़ नहीं गलियां अब मेरे शहर में.

घर हो गए मीनारें, इंसान हुआ छोटा,
रिश्तों में न हरारत, अब मेरे शहर में.

लब भूले मुस्कराना, तन्हाई है आँखों में,
मिलते हैं अज़नबी से सब मेरे शहर में.

दौलत है छुपा देती हर ऐब है इंसां का,
इंसानियत कराह रही अब मेरे शहर में.

.....कैलाश शर्मा 

Saturday, April 20, 2013

२००वीं पोस्ट - हैवानियत


                                     (चित्र गूगल से साभार)
क्यों पसरती जा रही
हैवानियत इंसानों में,
क्यों घटता जा रहा अंतर
मानव और दानव में,
क्यों हो गया मानव
घृणित दानव से भी?

भूल गया सभी रिश्ते और उम्र
दिखाई देती केवल एक देह,
बेमानी हो गए शब्द
प्रेम, वात्सल्य और स्नेह,
आँखों में है केवल भूख
झिंझोड़ने की एक देह,
कानून व्यवस्था सब बेमानी
बंधी हुई है पट्टी आँखों पर,
देखने तमाशा जुड़ जाती भीड़
पर बढ़ता नहीं कोई हाथ
करने को सामना.

नहीं आयेगी कोई दुर्गा
करने दानव दलन,
उठना होगा तुम्हें ही
बनना होगा दुर्गा
करने दानवों का शमन,
उठाओ खड्ग और खप्पर
पीने को लहू इन रक्तबीजों का,
गिरने न पाए लहू की
एक बूँद भी पृथ्वी पर,
पैदा न हो पाए फिर कोई
रक्तबीज धरा पर.

......कैलाश शर्मा 

Friday, April 19, 2013

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (४९वीं कड़ी)


                                 मेरी प्रकाशित पुस्तक 'श्रीमद्भगवद्गीता (भाव पद्यानुवाद)' के कुछ अंश: 

       बारहवाँ अध्याय 
(भक्ति-योग-१२.१-११)


अर्जुन :
जो भक्त निरंतर मनोयोग से 
सगुण रूप की पूजा करते.
कुछ अविनाशी निराकार की 
हो एकाग्र उपासना करते.

इन दोनों में कौन हे भगवन!
सबसे श्रेष्ठ योग वेत्ता है?  (१२.१)

श्री भगवान :
मेरे सगुण रूप में हो स्थित 
श्रद्धा सहित उपासना करते.
मेरे मत में ऐसे ही योगी,
श्रेष्ठ सर्व योगियों में रहते.  (१२.२)

अविनाशी अवर्णीय रूप जो 
निराकार और अचिन्त्य है.
करते उपासना सदा सर्वदा
जो अचल व अटल ब्रह्म है.  (१२.३)

समत्व भाव सर्वत्र हैं रखकर,
संयमित सभी इन्द्रियां रखते.
लोककल्याण में सतत रूचि है 
सभी उपासक मुझे ही लभते.  (१२.४)

निराकार ब्रह्म की उपासना 
सगुण भक्ति से दुष्कर है होती.
मनुजों की अव्यक्त ब्रह्म में
गति निश्चय ही कठिन है होती.  (१२.५)

सभी कर्म समर्पित करके
मुझे परायण है जो करता.
अनन्यभाव से योगपूर्वक 
मेरा ध्यान व अर्चन करता.  (१२.६)

अपने मन को जो अर्जुन 
सदा लगाए मुझमें रखता.
मृत्युरूप जगत सागर से 
मैं उसका उद्धार हूँ करता.  (१२.७)

मुझमें मन एकाग्र है करके 
स्थिर बुद्धि करो तुम मुझमें.
इसमें नहीं है संशय अर्जुन 
मृत्यु उपरान्त रहोगे मुझमें.  (१२.८)

अगर नहीं संभव है तुमको,
स्थिर मुझ में स्व मन करना.
अभ्यासयोग के द्वारा अर्जुन,
मुझे प्राप्ति की इच्छा करना.  (१२.९)

यदि असमर्थ अभ्यासयोग में
अर्पित करो स्वकर्म हैं मुझको.
मेरे हेतु कर्म करते भी तुम 
प्राप्त करोगे परम सिद्धि को.  (१२.१०)

यदि अशक्त हो तुम इसमें भी,
कर्म करो मुझको अर्पित कर.
मन, बुद्धि को करो संयमित,
कर्म फलों की चाह त्याग कर.  (१२.११)

               .......क्रमशः

...कैलाश शर्मा 

Tuesday, April 16, 2013

हाइकु

  (१)
जग जननी
हरो सब संताप
ममतामयी. 

  (२)
माँ का हो साथ
मिलता सब कुछ
बिन मांगे ही.


  (३) 
आओ माँ दुर्गा
दानवों का संहार,
भक्तों की रक्षा.

  (४)
छोड़ा अकेला
जब से है तूने माँ
नींद न आयी.

  (५)
सदैव पास
जब ठोकर खाता
थाम लेती माँ.

  (६)
कर्म साधना          
अगर सध गयी
जीवन मुक्ति.

  (७)
साधना पथ         
नहीं फूलों की राह
रखना धैर्य.

  (८)
निष्काम कर्म 
महानतम तप
करके देखो.

  (९)
तन माध्यम 
सबसे बड़ा तप 
मन की शुद्धि.

.....कैलाश शर्मा 






Friday, April 12, 2013

जीवन और मृत्यु


आ जाए जब  
जीना और मरना
जीवन के प्रत्येक पल में,
हर आती जाती श्वास
दे अहसास
मृत्यु और पुनर्जन्म का,
पहचान लें अपनी कमियाँ
निरपेक्ष भाव से
जो मिटा दे कलुष अंतर्मन का,
देखें केवल द्रष्टा भाव से
सभी अच्छे और बुरे कर्मों को,
बिना किसी पूर्वाग्रह के
झांकें दूसरों के अंतर्मन में
और कर पायें तादात्म्य आत्मा से,
लगती है सहज तब मृत्यु भी
जीवन में घटित घटनाओं की तरह,
नहीं होता अनुभूत कोई अंतर
तब जीवन और मृत्यु में.

...कैलाश शर्मा 

Tuesday, April 09, 2013

रोमांच अनिश्चितता का


रमी का खेल
रोके रखते कुछ पत्ते
इंतजार में आने के
बीच या साथी पत्ते के,
नहीं आता वह
और फेंक देते
हाथ के पत्ते को.

लेकिन अगला पत्ता
होता वही
जिसकी थी ज़रुरत
हाथ का पत्ता
फेंकने से पहले.
होता है अफ़सोस
कुछ पल को,
लेकिन आ जाती मुस्कान
कुछ पल बाद
इच्छित पत्ता आने पर.

यह अनिश्चितता ही
बनाये रखती रोमांच
और उत्साह
खेल और जीवन के
हर अगले पल का.

...कैलाश शर्मा

Tuesday, April 02, 2013

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (४८वीं कड़ी)


मेरी प्रकाशित पुस्तक 'श्रीमद्भगवद्गीता (भाव पद्यानुवाद)' के कुछ अंश: 

        ग्यारहवाँ अध्याय 
(विश्वरूपदर्शन-योग-११.४७-५५


श्री भगवान:
तुम पर प्रसन्न होकर के अर्जुन 
यह परमोत्तम रूप दिखाया.
तेजोमय, अनंत, विश्वरूप यह,
इससे पहले न कभी दिखाया.  (११.४७)

न वेदाध्यन स्वाध्याय यज्ञ से, 
न कर्मकांड दान व तपश्चर्या से.
नहीं कोई भी यह देख सका है 
अतिरिक्त तुम्हारे मृत्युलोक से.  (११.४८) 

मेरा घोर रूप देख कर अर्जुन
किंकर्तव्यविमूढ़ हो न घबराओ.
फिर से मेरा पहला रूप देख कर 
भय को त्याग प्रसन्न हो जाओ.  (११.४९)

संजय: 
यह कहकर अर्जुन से राजन,
सौम्य रूप कृष्ण दिखलाया.
देने सांत्वना डरे अर्जुन को 
सौम्य रूप उसको दिखलाया.  (११.५०)

अर्जुन:
देख सौम्य मानुषी रूप को
भगवन मैं प्रसन्न हो गया.
स्वाभाविक स्थिति में अब मैं 
मेरा मन है शान्त हो गया.  (११.५१)

श्री भगवान:
मेरा विश्वरूप है जो देखा 
बहुत कठिन देखना इसका.
करते देव भी हैं आकांक्षा
दर्शन के इस विश्वरूप का.  (११.५२)

जैसा रूप है देखा तुमने 
वैसा कोई देख न पाता.
न वेदों न तप न दान से 
नहीं यज्ञ से देख है पाता.  (११.५३)

केवल अनन्यभक्ति के द्वारा,
विश्वरूप में जान है सकता.
अर्जुन जान तत्व यह मुझमें 
अभिन्न रूप प्रवेश कर सकता.  (११.५४)

करता कर्म निमित्त मेरे ही,
मुझे परम पुरुषार्थ मानता.
वैर भाव आसक्ति रहित जो
मेरा भक्त मुझे है पाता.  (११.५५)

**ग्यारहवां अध्याय समाप्त**

                   .......क्रमशः

कैलाश शर्मा