Wednesday, July 16, 2014

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (१८वां अध्याय)

                                  मेरी प्रकाशित पुस्तक 'श्रीमद्भगवद्गीता (भाव पद्यानुवाद)' के कुछ अंश: 

      अठारहवाँ अध्याय 
(मोक्षसन्यास-योग-१८.४९-६०

जो आसक्तिहीन है सर्वत्र 
जीत आत्मा को है वह लेता.
विगतस्पृहा वह सन्यासी 
कर्मनिवृत्ति प्राप्त कर लेता.  (१८.४९)

नैष्कर्म्यसिद्धि प्राप्त है करके,
कैसे वह प्राप्त ब्रह्म को करता.
जो है ज्ञान की परम उपलब्धि 
अर्जुन वह मैं संक्षेप में कहता.  (१८.५०)

विशुद्धि बुद्धि से युक्त है होकर 
संयमित आत्म धैर्य से करता.
इन्द्रिय विषयों को त्याग कर 
राग द्वेष को नष्ट है करता.  (१८.५१)

एकांतवासी व अल्प आहारी,
तन मन वाणी संयमित रखता.
ध्यान, योग में लीन सदा ही 
पूर्ण वैराग्य का पालन करता.  (१८.५२)

अहंकार बल दर्प न जाने,
काम क्रोध परिग्रह तजता.
मोहरहित शांतचित जन 
ब्रह्मभाव योग्य है बनता.  (१८.५३)

ब्रह्मभाव प्राप्त योगी को 
आकांक्षा या शोक न होता.
समभाव रख सब प्राणी में 
परमभक्ति प्राप्त है होता.  (१८.५४)

मैं जितना और जैसा हूँ 
भक्ति से है तत्व जानता.
मेरा तत्व रूप जान कर 
मुझमें ही प्रवेश है करता.  (१८.५५)

सब कर्मों को है करते भी 
जो मेरा ही आश्रय है लेता.
मेरी कृपा से है ज्ञानी जन 
परममोक्ष प्राप्त कर लेता.  (१८.५६)

सभी कर्म कर मुझे समर्पित
मुझको ही सर्वस्व मान कर.
बुद्धि योग का आश्रय लेकर
मुझमें अपना मन स्थिर कर.  (१८.५७)

मुझमें चित्त लगाकर के,
तुम दुक्खों को पार करोगे.
अहंकार तुम्हें नष्ट कर देगा 
मेरा कथन यदि नहीं सुनोगे.  (१८.५८)

अगर सोचते अहंकार वश
नहीं युद्ध करना है तुमको.
व्यर्थ सोचते प्रकृति तुम्हारी 
युद्धप्रवृत्त करेगी तुमको.  (१८.५९)

नहीं चाहते कर्म वो करना 
वशीभूत मोह के कारण.
इच्छारहित भी करना होगा 
प्रकृतिजन्य कर्म के कारण.  (१८.६०) 

          ......क्रमशः

....कैलाश शर्मा 

Wednesday, July 09, 2014

ज़िंदगी

पैरों में चुभते काँटों से 
बेख़बर ज़िंदगी,
तपती धूप में 
कार के शीशे ठकठकाती
एक रुपया मांगती 
बच्ची के फटे कपड़ों में
काले चश्मे के पीछे से 
ज़वानी ढूंढती नज़रों का
दंश झेलती ज़िंदगी,
लम्बी वातानुकूलित कार में
मालकिन की गोद में
बैठे कुत्ते की ज़िंदगी, 
एक टुकड़ा रोटी का 
कूड़े में ढूँढती 
भूखी मासूम ज़िन्दगी,
पौष की कड़कड़ाती ठंड में
भूखे पेट की आग से 
तन को तापती ज़िंदगी,
अपने मुंह का निवाला
बच्चे को खिलाती माँ
आज वृद्धाश्रम में अकेली
जीवन के दूसरे छोर पर
अँधेरे में ढूँढती ज़िंदगी।

दिखाती नये रूप
बदलती रोज़ रंग,
लगती कभी प्रिय 
कभी हो जाती बेमानी,
कागज़ पर बिखरे
बेतरतीब शब्दों सी
लगती कभी ज़िंदगी,
फ़िर भी न जाने क्यूँ
लगती हर हालात में  
अपनी सी ज़िंदगी।

...©कैलाश शर्मा 

Tuesday, July 01, 2014

एक टुकड़ा बादल

एक टुकड़ा बादल       
भटक कर अपनी राह
बरस गया मेरे आँगन में,
बुझा गया प्यास
वर्षों से तृषित अंतर्मन की.

बरसते हैं बादल आज भी
भिगो कर गुज़र जाते आँगन भी
पर प्यासा ही रह जाता अंतर्मन.

तलाशती हैं आँखें
बादल का वह टुकड़ा
गुज़रते घने बादलों में 
आज़ भी.

...कैलाश शर्मा