Sunday, October 11, 2015

कुछ क़दम तो चलें

एक दिन तो मिलें,
कुछ क़दम तो चलें।

राह कब एक हैं,
मोड़ तक तो चलें।

साथ जितना मिले,
कुछ न सपने पलें।

राह कितनी कठिन,
अश्क़ पर क्यूँ ढलें।

भूल सब ही गिले,
आज़ फ़िर से मिलें।

...©कैलाश शर्मा 

22 comments:

  1. मंजिले अपनी जगह है रास्ते अपनी जगह फिर भी दो कदम गर कोई साथ दे तो रहा आसान हो जाती है। सुन्दर रचना।

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  2. भूल सब ही गिले,
    आज़ फ़िर से मिलें।

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (12-10-2015) को "प्रातः भ्रमण और फेसबुक स्टेटस" (चर्चा अंक-2127) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  4. वाह! बहुत खूब...

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  5. बहुत सुन्दर, मोती से शब्दों में पिरे हुए अहसास

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  6. राह कब एक हैं,
    मोड़ तक तो चलें।
    … सच जितना साथ हो उतना खुशनुमा पल हों तो अच्छा है
    बहुत सुन्दर

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  7. "मोड़ तक तो चलें "
    बहुत खूब |

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  8. आगे बढ़ने को यही विचार आवश्यक हैं. सुंदर कविता.

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  9. बहुत सुंदर भाव..संग साथ बना रहे तो संवाद पुनः घटता है

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  10. ये एहसास भी अजीब माध्यम है सर
    कभी इसे अश्कों का समंदर चाहिए तो
    कभी अपने कातिलों को भी अपनी उम्र
    दे आती है। गर ये कड़ी साथ है तो फिर से
    मिलने की बात लाजिमी है. ।

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  12. शानदार अभिव्यक्ति ! इंसान अगर साथ चल सके उस में भी सुकून के पल मिल जाते हैं !!

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  13. सुन्दर व सार्थक रचना ..
    मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है...

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  14. वाह छोटी बहर में शब्दों की जादूगरी ...

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