Tuesday, December 08, 2015

सीढ़ियां

चढ़ते ही कुछ ज्यादा सीढ़ी अपनों से
हो जाते विस्मृत संबंध रिश्ते,
निकल जाते अनज़ान हो कर
बचपन के हमउम्र साथियों से
जो खेल रहे होते क्रिकेट
नज़दीकी मैदान में।

खो जाती स्वाभाविक हँसी
बनावटी मुखोटे के अन्दर,
खो जाता अन्दर का छोटा बच्चा
अहम् की भीड़ में।
विस्मृत हो जातीं पिछली सीढियां
जिनके बिना नहीं अस्तित्व
किसी अगली सीढ़ी का।


कितना कुछ खो देते
अपने और अपनों को,
आगे बढ़ने की दौड़ में।।

...©कैलाश शर्मा

14 comments:

  1. सच में जैसे खोने का ही दौर चल रहा है।

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  2. अति सुन्दर कविता।बहुत खूब।

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  3. अति सुन्दर कविता।बहुत खूब।

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  4. सत्य के समीप एक बहुत ही सुन्दर रचना !

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  5. वाकई सबको साथ लेकर चलने की कला सीखनी पडती है..तभी तो होगा सबका विकास..

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  6. वाह, बहुत ही सुंदर रचना।

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  7. शर्मा जी, नमस्कार । बेहद भावपूर्ण और सटीक रचना है । बधाई ...

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  8. Bahut sunder rachna....
    Welcome to my blog on my new post.

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  9. अति सुंदर रचना ।

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  10. पाने की चाह में हम बहुत कुछ खोते जा रहे हैं ।
    अनुभव - जन्य पीडा ।

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