Sunday, June 15, 2014

अनजाना चेहरा

नज़र बचा कर गुज़र गया वो, जैसे मैं अनजाना चेहरा,
धुंधली पड़ती नज़र ने शायद, देखा था अनजाना चेहरा.

आकर गले लिपट जाता था, ज़ब भी घर में मैं आता था,
कैसे उसको आज हो गया, मैं बस इक अनजाना चेहरा.

उंगली पकड़ सिखाया चलना, बोझ लगा न वह कंधों पर,
जब अशक्त हो गये ये कंधे, लगता उसको बेगाना चेहरा.

स्वारथ की आंधी में उजड़े, कितने बाग़ यहाँ रिश्तों के,
अब तो घर घर में दिखता है, मुझको बस अनजाना चेहरा.

नहीं प्रेम आदर जब उर में, पितृ दिवस का अर्थ न कोई,   
धुंधली आँखों को नज़र न आया, अब कोई पहचाना चेहरा.

(अगज़ल/अभिव्यक्ति)

....कैलाश शर्मा 

27 comments:

  1. बिल्कुल सच कहा आपने। बिना पिता के प्रति नि:स्वार्थ प्रेम के किसी दिवस की कोई महत्ता नहीं है।
    वास्तविक आइना समाज के लिए है आपकी रचना।

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  2. चुनिंदा शेर...लाजवाब ग़ज़ल...

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  3. हालात अनजाने होने के ही बन गए हैं।

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  4. कटु यथार्थ से रू ब रू कराती सशक्त सार्थक रचना !

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  5. नहीं प्रेम आदर जब उर में, पितृ दिवस का अर्थ न कोई,
    धुंधली आँखों को नज़र न आया, अब कोई पहचाना चेहरा.

    लाजवाब ।

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  6. पितृ दिवस पर बेहद भावुक व मर्मस्पर्शी रचना।

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  7. स्वारथ की आंधी में उजड़े, कितने बाग़ यहाँ रिश्तों के,
    अब तो घर घर में दिखता है, मुझको बस अनजाना चेहरा.

    सुंदर प्रस्तुति।।।

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  8. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज सोमवार (16-06-2014) को "जिसके बाबूजी वृद्धाश्रम में.. है सबसे बेईमान वही." (चर्चा मंच-1645) पर भी है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  10. यथार्थ और मर्मस्पर्शी रचना ....

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  11. सुंदर भाव अभिव्यक्ति

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  12. उंगली पकड़ सिखाया चलना, बोझ लगा न वह कंधों पर,
    जब अशक्त हो गये ये कंधे, लगता उसको बेगाना चेहरा.
    बहुत खूबसूरत भावाभिव्यक्ति

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  13. स्वारथ की आंधी में उजड़े, कितने बाग़ यहाँ रिश्तों के,
    अब तो घर घर में दिखता है, मुझको बस अनजाना चेहरा.
    बदलते रिश्तों को सही परिभाषित किया है आपने !

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  14. पितृ ऋण चुकाने हेतु वर्ष में एक बार एक बार फादर्स डे मनाओ, उन्हें बाजार से ला कर एक कार्ड दो, ज्याेड़ा हो तो कोई गिफ्ट दे दो पर पिता के पाँव चुने या उनकी दुःख तकलीफ में देखभाल करने को समय नहीं जब प्रेम नहीं तो यह सब कहाँ पाश्चात्य , व भोतिक वादी, बाज़ार वादी संस्कृति में बस यह दिखावा ही रह गया है हालाँकि भारत में अभी भी कुछ परिवार इस से अछूते हैं पर भविष्य में यह उन पर्व हावी नहीं होगा इसकी कोई गारंटी नहीं

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  15. बहुत मार्मिक और सच से रूबरू कराती रचना !

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  16. मार्मिक, यथार्थवादी रचना ...

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  17. मार्मिक ग़ज़ल .....शानदार |

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  18. मर्मस्पर्शी और खूबसूरत रचना

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  19. लाजवाब ग़ज़ल ....
    बहुत खूब ....

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  20. उंगली पकड़ सिखाया चलना, बोझ लगा न वह कंधों पर,
    जब अशक्त हो गये ये कंधे, लगता उसको बेगाना चेहरा...
    कडवी कहीकत से रूबरू करता हुआ शेर है ... सिर्फ यही नहीं हर शेर ... जैसे सच को हूबहू लिख दिया हो आपने ...

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  21. फिर भी क्यों अपना सा लगता ....वो आज का अनजान चेहरा |
    मर्मस्पर्शी .......

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  22. उंगली पकड़ सिखाया चलना, बोझ लगा न वह कंधों पर,
    जब अशक्त हो गये ये कंधे, लगता उसको बेगाना चेहरा.
    ............खूबसूरत भावाभिव्यक्ति

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  23. उंगली पकड़ सिखाया चलना, बोझ लगा न वह कंधों पर,
    जब अशक्त हो गये ये कंधे, लगता उसको बेगाना चेहरा.

    और

    नहीं प्रेम आदर जब उर में, पितृ दिवस का अर्थ न कोई,
    धुंधली आँखों को नज़र न आया, अब कोई पहचाना चेहरा. बहुत खूब |

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  24. उंगली पकड़ सिखाया चलना, बोझ लगा न वह कंधों पर,
    जब अशक्त हो गये ये कंधे, लगता उसको बेगाना चेहरा.
    सुन्दर अभिव्यक्ति कैलाश जी ..काश दिल से लोग माँ पिता के त्याग को प्रेम को महसूस करें और ऐसे ही निभाएं
    प्रतापगढ़ साहित्य प्रेमी मंच में आप आये ख़ुशी हुयी
    भ्रमर ५

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  25. सुंदर प्रस्तुति

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