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Friday, August 27, 2010

पीड़ा का उपहार दिया क्यों ......




पीड़ा का उपहार दिया क्यों तुमने मेरे प्यासे उर को,
माना तुमसे खुशियों का प्रतिदान नहीं माँगा था मैंने।

फूल नहीं खिलते हर तरु पर,
लेकिन सभी नहीं ज़लते हैं।
नहीं चांदनी मिलती सब को,
लेकिन दीप नहीं बुझते हैं।

दिया अँधेरा ऐसा क्यों अस्तित्व अलोप होगया जिसमें,
माना दीप मालिका का वरदान नहीं माँगा था मैने.

दे सकती थीं नहीं प्रेम तुम,
लेकिन स्वप्न न तोडा होता।
बुझा न सकती थीं अंगारे,
नहीं कुरेदा उनको होता ।

इतना दग्ध किया क्यों उर को,बरस पड़े नयनों के बादल,
माना नहीं अधर पर स्मित का नर्तन माँगा था मैंने ।

बहुत कह दिया था नयनों ने,
लेकिन शब्द नहीं जुट पाये।
बाँध लिया था उर ने तुमको,
लेकिन हाथ नहीं बढ़ पाये ।

साथ नहीं था दिया प्रेम के मंदिर को सर्जन करने में,
कब्र बनादो मगर प्रेम की यह भी कब चाहा था मैंने।

स्वयं तोड़ दी जब सीमायें,
कैसे सीमा में तुम्हें बांधता।
किन्तु और की बांहों में हो,
यह भी सहन नहीं हो पाता।

कुछ क्षण बन आकाश दीप, क्यों आस जगादी तुमने तट की,
वरना कब तट का आँचल चाहा था मेरे भटके मन ने ।











Tuesday, August 03, 2010

कलियुग की अहिल्या


अहिल्या की तरह शिला बनी जनता
सहती रही शीत, ताप, वर्षा,
कितने शासक आये
कितने गये
किसी ने सताया
किसी ने सहलाया
लेकिन उसके मुख से निकली न आह, न वाह,
क्यों की वह तो एक शापित शिला थी,
उसे इंतज़ार था केवल एक राम का
जो उसको फिर जीवन्त कर दे.

उसकी व्यथा से द्रवित हो
कलियुग में भी आया एक राम
पर उसका स्पर्श
धड़ तक ही दे पाया स्पंदन,
पैर पाषाण ही रहे
क्योंकि वह था कलियुग का राम,
सतयुग का नहीं
जिसके स्पर्श से
शिला संपूर्ण जीवन्त अहिल्या बन गयी.

लेकिन अब अर्ध जीवन्त अहिल्या
केवल वोट दे सकती है,
पर आगे बढ़ कर अन्याय को कुचल नहीं सकती.
मंजिल नेताओं द्वारा दिखाया गया जो स्वप्न है
वहां तक वह कभी जा नहीं सकती,
क्यों की उसके पैर अब भी शिला हैं
जो उठ नहीं सकते.

वह चीखती है, चिल्लाती है
फिर चुप हो जाती है
और सूनी आँखों से देखती है रस्ता
सतयुग के उस राम का
जो शायद फिर आजाये
और पूर्णतः जीवंत कर दे आज की अहिल्या को
जिससे वह अन्याय की मूक दर्शक न रहे
और कुचल सके उसे अपने पैरों तले.