क्यों करते हो आस निकालेगा कोई आकर के तुमको,
उलझ गये हो जब अपने ही बुने हुए ताने बाने में.
नहीं कोई भी कन्धा जिस पर
सिर रख कर के तुम रो लेते.
नहीं कोई भी बांह पकड़ कर
जिसको यहाँ संभल तो लेते.
चलो ठीक था अगर डुबाई होती नौका तूफानों ने,
लेकिन धोखा दिया किनारे ने ही हम को अनजाने में.
जितना धूमिल करना चाहा
चित्र तुम्हारा उतना निखरा.
जितना दर्द समेटा उर में
उतना ही नयनों से बिखरा.
जाना ही था अगर तुम्हें तो ले जाती यादें भी अपनी,
नहीं घुमड़ती रहतीं जिससे यह मेरे इस वीराने में.
क्या अब कुछ जीवन से मांगे,
इतना ही है बोझ बन गया.
क्या होगा फिर प्यार ढूंढ़ कर,
यही स्वयं जब रोग बन गया.
ले जाओ अमृत अपना यह, मुझे घूंट देदो बस विष का,
इतना मोह म्रत्यु से अब तो सफल न होगी बहकाने में.
उलझ गये हो जब अपने ही बुने हुए ताने बाने में.
नहीं कोई भी कन्धा जिस पर
सिर रख कर के तुम रो लेते.
नहीं कोई भी बांह पकड़ कर
जिसको यहाँ संभल तो लेते.
चलो ठीक था अगर डुबाई होती नौका तूफानों ने,
लेकिन धोखा दिया किनारे ने ही हम को अनजाने में.
जितना धूमिल करना चाहा
चित्र तुम्हारा उतना निखरा.
जितना दर्द समेटा उर में
उतना ही नयनों से बिखरा.
जाना ही था अगर तुम्हें तो ले जाती यादें भी अपनी,
नहीं घुमड़ती रहतीं जिससे यह मेरे इस वीराने में.
क्या अब कुछ जीवन से मांगे,
इतना ही है बोझ बन गया.
क्या होगा फिर प्यार ढूंढ़ कर,
यही स्वयं जब रोग बन गया.
ले जाओ अमृत अपना यह, मुझे घूंट देदो बस विष का,
इतना मोह म्रत्यु से अब तो सफल न होगी बहकाने में.
जितना धूमिल करना चाहा
ReplyDeleteचित्र तुम्हारा उतना निखरा.
जितना दर्द समेटा उर में
उतना ही नयनों से बिखरा.
जाना ही था अगर तुम्हें तो ले जाती यादें भी अपनी,
नहीं घुमड़ती रहतीं जिससे यह मेरे इस वीराने में.
बहुत बढ़िया...बहुत अच्छी
Sharma Ji saarthak aur bhaawpurn rachanaa hai.
ReplyDeleteवीना जी और माणिक जी प्रोत्साहन और ब्लॉग से जुड़ने के लिए धन्यवाद..
ReplyDeletebahut sundar kavitaa...
ReplyDeleteचलो ठीक था अगर डुबाई होती नौका तूफानों ने,
लेकिन धोखा दिया किनारे ने ही हम को अनजाने में.
..bahut sundar panktiyaa....
धन्यवाद डॉ.गैरोला जी .....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भाव लिए सुन्दर रचना...
ReplyDeleteयहाँ भी पधारें ...
विरक्ति पथ
अनुष्का
Dhanyavad Rani ji.....
ReplyDeleteजितना धूमिल करना चाहा
ReplyDeleteचित्र तुम्हारा उतना निखरा.
जितना दर्द समेटा उर में
उतना ही नयनों से बिखरा.
सुन्दर पंक्तियाँ।
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जितना दर्द समेटा उर में
ReplyDeleteउतना ही नयनों से बिखरा.
bahut khoob .... kailash ji...
धन्यवाद डॉ. दिव्या जी और क्षितिजा जी.....
ReplyDeleteक्यों करते हो आस निकालेगा कोई आकर के तुमको,
ReplyDeleteउलझ गये हो जब अपने ही बुने हुए ताने बाने में.
ले जाओ अमृत अपना यह, मुझे घूंट देदो बस विष का,
बढ़िया...
@--क्या अब कुछ जीवन से मांगे,
ReplyDeleteइतना ही है बोझ बन गया.
क्या होगा फिर प्यार ढूंढ़ कर,
यही स्वयं जब रोग बन गया....
लेकिन कैलाश जी, ये निराशा क्यूँ ?
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जितना धूमिल करना चाहा
ReplyDeleteचित्र तुम्हारा उतना निखरा
बेहतरीन भाव की कविता ... बहुत सुन्दर
@मिश्रा जी और वर्मा जी
ReplyDeleteआपके प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद.....
@डॉ.दिव्या जी
आपके प्रश्न का उत्तर देना बहुत कठिन है....सब कुछ उपलब्ध होने के वाबजूद जीवन के कुछ ऐसे कौने होते हैं जो रिक्त रह जाते हैं और मन में अवसाद भर देते हैं ...... वे क्षण विवश कर देते हैं भावनाओं को कविता में उड़ेल देने के लिए...
बेहतरीन भाव ... बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबेहतरीन भाव ... बहुत सुन्दर
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