छठा अध्याय
(ध्यान-योग - ६.२६-३६)
चंचल मन हो कर आकर्षित,
जब विचलित हो इधर उधर.
लौटा कर के उसे वहाँ से,
उसे आत्म में ही स्थिर कर. (२६)
रज गुण से जो मुक्त हो गया,
पूर्ण शान्त उसका मन होता.
है पाप रहित ऐसा जो योगी
उत्तम सुख को प्राप्त है होता. (२७)
मन को करके ऐसे वश में,
आत्मा में एकाग्र है करता.
पाप रहित ऐसा वह योगी,
परम मोक्ष का सुख लभता. (२८)
एकाग्र चित्त, समदृष्टि योगी,
आत्मा अपनी देखे सब जन में.
भेद भाव से रहित है हो कर,
सर्व सृष्टि देखे निज मन में. (२९)
मुझको देखे प्राणिमात्र में,
प्राणिमात्र मुझमें है देखता.
न अदृश्य मैं होता उसको,
वह अदृश्य न मुझसे रहता. (३०)
सब जन में स्थित जो मुझको
बिना भेद भाव के है भजता.
सर्व कर्म करता वह योगी,
मुझ में ही निवास है करता. (३१)
सुख प्रिय दुःख अप्रिय मुझको,
वैसे ही अर्जुन औरों को होता.
अपने सदृश्य देखता सबको,
परम श्रेष्ठ योगी है वह होता. (३२)
अर्जुन
हे मधुसूदन! समभाव योग है
दीर्घ काल क्या स्थिर होगा?
मन की चंचलता के कारण
कैसे स्थिर स्थिति में होगा? (३३)
तन व इन्द्रिय क्षुब्ध है करता,
मन स्वभाव से ही चंचल है.
निग्रह इस बलवान चित्त का,
वायु बांधने सम मुश्किल है. (३४)
श्री भगवान
निश्चय कठिन है मन वश करना,
यह है बहुत ही चंचल अर्जुन.
लेकिन अभ्यास वैराग्य के द्वारा,
इसका निग्रह भी है संभव. (३५)
नहीं संयमित चित्त है जिसका,
कठिन बहुत यह योग है पाना.
आत्मा पर जिसका वश होता,
संभव योग इस युक्ति से पाना. (३६)
.......क्रमशः
कैलाश शर्मा
(ध्यान-योग - ६.२६-३६)
चंचल मन हो कर आकर्षित,
जब विचलित हो इधर उधर.
लौटा कर के उसे वहाँ से,
उसे आत्म में ही स्थिर कर. (२६)
रज गुण से जो मुक्त हो गया,
पूर्ण शान्त उसका मन होता.
है पाप रहित ऐसा जो योगी
उत्तम सुख को प्राप्त है होता. (२७)
मन को करके ऐसे वश में,
आत्मा में एकाग्र है करता.
पाप रहित ऐसा वह योगी,
परम मोक्ष का सुख लभता. (२८)
एकाग्र चित्त, समदृष्टि योगी,
आत्मा अपनी देखे सब जन में.
भेद भाव से रहित है हो कर,
सर्व सृष्टि देखे निज मन में. (२९)
मुझको देखे प्राणिमात्र में,
प्राणिमात्र मुझमें है देखता.
न अदृश्य मैं होता उसको,
वह अदृश्य न मुझसे रहता. (३०)
सब जन में स्थित जो मुझको
बिना भेद भाव के है भजता.
सर्व कर्म करता वह योगी,
मुझ में ही निवास है करता. (३१)
सुख प्रिय दुःख अप्रिय मुझको,
वैसे ही अर्जुन औरों को होता.
अपने सदृश्य देखता सबको,
परम श्रेष्ठ योगी है वह होता. (३२)
अर्जुन
हे मधुसूदन! समभाव योग है
दीर्घ काल क्या स्थिर होगा?
मन की चंचलता के कारण
कैसे स्थिर स्थिति में होगा? (३३)
तन व इन्द्रिय क्षुब्ध है करता,
मन स्वभाव से ही चंचल है.
निग्रह इस बलवान चित्त का,
वायु बांधने सम मुश्किल है. (३४)
श्री भगवान
निश्चय कठिन है मन वश करना,
यह है बहुत ही चंचल अर्जुन.
लेकिन अभ्यास वैराग्य के द्वारा,
इसका निग्रह भी है संभव. (३५)
नहीं संयमित चित्त है जिसका,
कठिन बहुत यह योग है पाना.
आत्मा पर जिसका वश होता,
संभव योग इस युक्ति से पाना. (३६)
.......क्रमशः
कैलाश शर्मा
नहीं संयमित चित्त है जिसका,
ReplyDeleteकठिन बहुत यह योग है पाना.
आत्मा पर जिसका वश होता,
संभव योग इस युक्ति से पाना.
बहुत ही बढिया प्रस्तुति ... आभार
नहीं संयमित चित्त है जिसका,
ReplyDeleteकठिन बहुत यह योग है पाना.
आत्मा पर जिसका वश होता,
संभव योग इस युक्ति से पाना.
वाह अति उत्तम प्रस्तुति
बहुत सुन्दर प्रस्तुति .....
ReplyDeleteअहो ! साधुवाद..साधुवाद..
ReplyDeleteमुझको देखे प्राणिमात्र में,
ReplyDeleteप्राणिमात्र मुझमें है देखता.
न अदृश्य मैं होता उसको,
वह अदृश्य न मुझसे रहता
अति सुंदर पंक्तियाँ !
नहीं संयमित चित्त है जिसका,
ReplyDeleteकठिन बहुत यह योग है पाना.
आत्मा पर जिसका वश होता,
संभव योग इस युक्ति से पाना.
बहुत ही बढिया प्रस्तुति,श्रीकृष्ण ने सही कहा ---चंचल मन से कभी योग नहीं हो सकता आत्मा को वश में करने का अभ्यास ही योग करवा सकता है बहुत ज्ञानवर्धक ... आभार
बहुत ही सुन्दर अनुवाद.
ReplyDeleteआभार.
Harbaar sirf ekhee shabd hota hai mere paas...aprateem!
ReplyDelete
ReplyDeleteतन व इन्द्रिय क्षुब्ध है करता,
मन स्वभाव से ही चंचल है.
निग्रह इस बलवान चित्त का,
वायु बांधने सम मुश्किल है.
सुन्दर मनोहर भावानुवाद सहज सरल सुबोध .
देवनागरी में किया, गीता का अनुवाद।
ReplyDeleteयुगों-युगों तक अमर हो, हरे सभी अवसाद।।
सुंदर भावानुवाद.... अमूल्य शृंखला....
ReplyDeleteसादर आभार
bhu sunder ,geeta ke klisht shloko ka devnagri me anuvad sadhuvad ,ab amjan jo saskrit nhi jante ve bhi labhanvit hoge,/geeta purohit
ReplyDeleteअदभुद काम कर रहे हैं आप !
ReplyDeleteआप इस युग में पुण्य कमा रहे हैं। बहुत ही बढ़िया । राही मासूम रजा की एक सुंदर कविता पढ़ने के लिए आपका मेरे पोस्ट पर आमंत्रण है ।
ReplyDeleteमन को करके ऐसे वश में,
ReplyDeleteआत्मा में एकाग्र है करता.
पाप रहित ऐसा वह योगी,
परम मोक्ष का सुख लभता.लभता शब्द प्रयोग एक कोमल भाव की सृष्टि करता है एक रागात्मकता पैदा करने में "गीता "के प्रति यह पद्य -भावानुवाद कामयाब रहा है .बधाई . यहाँ भी पधारें
ram ram bhai
शुक्रवार, 17 अगस्त 2012
गर्भावस्था में काइरोप्रेक्टिक चेक अप क्यों ?
गर्भावस्था में काइरोप्रेक्टिक चेक अप क्यों ?
मुझको देखे प्राणिमात्र में,
ReplyDeleteप्राणिमात्र मुझमें है देखता.
न अदृश्य मैं होता उसको,
वह अदृश्य न मुझसे रहता. (३०)
गीता को सरल भाषा में समझाने का प्रयास अद्भुत है !!
सुंदर प्रस्तुति.....
ReplyDeleteसमभाव - कितना दुष्कर है..
ReplyDeleteयह कार्य स्मरणीय होगा ...
ReplyDeleteशुभकामनायें भाई जी !
एक बार फिर सुन्दर प्रस्तुति
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