छठा अध्याय
(ध्यान-योग - ६.०१-१५)
श्री भगवान
अनासक्त हो कर्म फलों से
कर्तव्य समझ कर्म जो करता.
वह ही सच्चा योगी सन्यासी,
न वह जो यज्ञ कर्म को तजता. (१)
कहते हैं सन्यास जिसे सब,
उसे योग ही जानो अर्जुन.
बिना कर्म फल इच्छा त्यागे
होता नहीं कोई योगी जन. (२)
जो मुनि योग प्राप्ति का इच्छुक
उसको कर्म है साधन होता.
प्राप्त योग कर लिया है जिसने
शान्ति मुक्ति का कारण होता. (३)
इन्द्रिय विषय और कर्मों में
जो जन है आसक्त न होता.
सर्व कामनाओं को तजकर
'योगारूढ़' है वह जन होता. (४)
उद्धार स्वयं का आत्म ज्ञान से,
करो न कलुषित कभी आत्मा.
है आत्मा ही आत्मा का बंधु,
व आत्मा का शत्रु भी आत्मा. (५)
जिसने स्वयं आत्म को जीता,
आत्मा उसकी आत्मा की बंधु.
संयम नहीं स्वयं आत्मा पर,
होती आत्मा ही है उसकी शत्रु. (६)
जीत लिया आत्मा को जिसने,
जिसका मन प्रशांत है होता.
सुख दुःख,यश अपयश में सम है,
स्थित परमात्मा में वह होता. (७)
ज्ञान विज्ञान से चित्त तृप्त है,
दोष रहित, संयमित इन्द्रिय.
मिट्टी, पत्थर, स्वर्ण एक सम,
योगारूढ़ कहाता है जन वह. (८)
सुह्रद, मित्र, उदासीन या शत्रु,
द्वेष योग्य, मध्यस्थ, बंधु है.
साधू, पापी,समबुद्धि है सब में
कहलाता जन वही श्रेष्ठ है. (९)
एकांत वास करे वह योगी,
करके मन को पूर्ण संयमित.
इच्छा रहित, अपरिग्रह होकर,
मन को करे ब्रह्म में स्थित. (१०)
स्वच्छ जगह पर आसन हो,
न ऊँचा या नीचा, हो स्थिर.
कुश, मृग चर्म, वस्त्र बिछे हों.
उस आसन पर वहाँ बैठ कर.
संयमित चित्त व इन्द्रिय
व एकाग्र है मन को करके.
योगाभ्यास चाहिए करना,
हेतु पूर्ण मन की शुद्धि के. (११-१२)
काया, सिर एवम् ग्रीवा को
सीधा व स्थिर रख कर के.
इधर उधर न दृष्टि घुमाये,
दृष्टि नासाग्र स्थिर करके. (१३)
शांत और निर्भय मन होकर,
ब्रह्मचर्य व्रत पालन करके.
मन को हटा सभी विषयों से,
योगयुक्त,मन मुझ में करके. (१४)
कर के एकाग्र सदा मन योगी,
मन को सदा संयमित रखता.
होता जो मेरे स्वरुप में स्थित,
परम शान्ति निर्वाण है लभता. (१५)
........क्रमशः
कैलाश शर्मा
(ध्यान-योग - ६.०१-१५)
श्री भगवान
अनासक्त हो कर्म फलों से
कर्तव्य समझ कर्म जो करता.
वह ही सच्चा योगी सन्यासी,
न वह जो यज्ञ कर्म को तजता. (१)
कहते हैं सन्यास जिसे सब,
उसे योग ही जानो अर्जुन.
बिना कर्म फल इच्छा त्यागे
होता नहीं कोई योगी जन. (२)
जो मुनि योग प्राप्ति का इच्छुक
उसको कर्म है साधन होता.
प्राप्त योग कर लिया है जिसने
शान्ति मुक्ति का कारण होता. (३)
इन्द्रिय विषय और कर्मों में
जो जन है आसक्त न होता.
सर्व कामनाओं को तजकर
'योगारूढ़' है वह जन होता. (४)
उद्धार स्वयं का आत्म ज्ञान से,
करो न कलुषित कभी आत्मा.
है आत्मा ही आत्मा का बंधु,
व आत्मा का शत्रु भी आत्मा. (५)
जिसने स्वयं आत्म को जीता,
आत्मा उसकी आत्मा की बंधु.
संयम नहीं स्वयं आत्मा पर,
होती आत्मा ही है उसकी शत्रु. (६)
जीत लिया आत्मा को जिसने,
जिसका मन प्रशांत है होता.
सुख दुःख,यश अपयश में सम है,
स्थित परमात्मा में वह होता. (७)
ज्ञान विज्ञान से चित्त तृप्त है,
दोष रहित, संयमित इन्द्रिय.
मिट्टी, पत्थर, स्वर्ण एक सम,
योगारूढ़ कहाता है जन वह. (८)
सुह्रद, मित्र, उदासीन या शत्रु,
द्वेष योग्य, मध्यस्थ, बंधु है.
साधू, पापी,समबुद्धि है सब में
कहलाता जन वही श्रेष्ठ है. (९)
एकांत वास करे वह योगी,
करके मन को पूर्ण संयमित.
इच्छा रहित, अपरिग्रह होकर,
मन को करे ब्रह्म में स्थित. (१०)
स्वच्छ जगह पर आसन हो,
न ऊँचा या नीचा, हो स्थिर.
कुश, मृग चर्म, वस्त्र बिछे हों.
उस आसन पर वहाँ बैठ कर.
संयमित चित्त व इन्द्रिय
व एकाग्र है मन को करके.
योगाभ्यास चाहिए करना,
हेतु पूर्ण मन की शुद्धि के. (११-१२)
काया, सिर एवम् ग्रीवा को
सीधा व स्थिर रख कर के.
इधर उधर न दृष्टि घुमाये,
दृष्टि नासाग्र स्थिर करके. (१३)
शांत और निर्भय मन होकर,
ब्रह्मचर्य व्रत पालन करके.
मन को हटा सभी विषयों से,
योगयुक्त,मन मुझ में करके. (१४)
कर के एकाग्र सदा मन योगी,
मन को सदा संयमित रखता.
होता जो मेरे स्वरुप में स्थित,
परम शान्ति निर्वाण है लभता. (१५)
........क्रमशः
कैलाश शर्मा
कर के एकाग्र सदा मन योगी,
ReplyDeleteमन को सदा संयमित रखता.
होता जो मेरे स्वरुप में स्थित,
परम शान्ति निर्वाण है लभता.
बहुत ही बढिया ...
आभार आपका
Bahut saal poorv padhee Geeta ab samajh me aa rahee hai!
ReplyDeleteशांत और निर्भय मन होकर,
ReplyDeleteब्रह्मचर्य व्रत पालन करके.
मन को हटा सभी विषयों से,
योगयुक्त,मन मुझ में करके.,,,,
बेहतरीन प्रस्तुति ,,,,,बधाई,,कैलाश जी,
RECENT POST...: जिन्दगी,,,,
बहुत बढ़िया |
ReplyDeleteसुन्दर भाव ||
अनासक्त हो कर्म फलों से
ReplyDeleteकर्तव्य समझ कर्म जो करता.
वह ही सच्चा योगी सन्यासी,
न वह जो यज्ञ कर्म को तजता. (१)सुन्दर भाव बढ़िया प्रस्तुति..आभार
कर्म कर कहे बिन इच्छा के,
ReplyDeleteनहीं लिप्त मन-मान कहीं पर।
AAPKEE LEKHNI SE BAHUT ZYAADA PRABHAAVIT HUN .
ReplyDeleteयोग का सुन्दर चित्रण किया है।
ReplyDeleteइतनी सुन्दर काव्यात्मक व्याख्या !
ReplyDeleteवाह! आनन्द आ गया है कैलाश जी.
बहुत बहुत हार्दिक आभार जी.
हमेशा की तरह सुन्दर ।
ReplyDeleteसुंदर वर्णन...ध्यान के सूत्र देती हुई !
ReplyDeleteकर के एकाग्र सदा मन योगी,
ReplyDeleteमन को सदा संयमित रखता.
होता जो मेरे स्वरुप में स्थित,
परम शान्ति निर्वाण है लभता.
kya bat hai...
बहुत सुंदर प्रस्तुति ....
ReplyDeleteI'm not sure the place you're getting your info, but good topic.
ReplyDeleteI must spend a while learning more or understanding more.
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