सातवाँ अध्याय
(ज्ञानविज्ञान-योग-७.२४-३०)
अल्प बुद्धि वाले जो जन हैं
अव्यक्त को व्यक्त मानते.
अपनी अल्प बुद्धि के कारण
मेरा अव्यय रूप न जानते. (२४)
प्रगट नहीं होता मैं सबको
ढका योगमाया से रहता.
मेरे अविनाशी स्वरुप को
मूढ़ लोक है नहीं जानता. (२५)
भूत, भविष्य, वर्तमान के
सभी प्राणियों को मैं जानता.
लेकिन अर्जुन इतना जानो
मुझे कोई भी नहीं जानता. (२६)
इच्छा और द्वेष से पैदा
द्वंद्वों से मोहित होकर के.
हे भारत! हो जाते मोहित
प्राणी हैं समस्त इस जग के. (२७)
पुण्य कर्म वाली आत्मायें,
पाप नष्ट हो गये हैं जिनके.
मुक्त द्वंद्व मोह से होकर
मुझे अनन्यभाव से भजते. (२८)
जरा, मृत्यु से मुक्ति प्राप्त को
मेरा आश्रय ले यत्न हैं करते.
परमब्रह्म, आध्यात्म, कर्म को
वह जन अच्छी तरह समझते. (२९)
लौकिक, दैविक, यज्ञ सभी में
जो जन मेरा रूप जानते.
करते जब प्रयाण इस जग से,
मेरे भक्त हैं मुझे जानते. (३०)
.........क्रमशः
**सातवाँ अध्याय समाप्त**
कैलाश शर्मा
प्रगट नहीं होता मैं सबको
ReplyDeleteढका योगमाया से रहता.
मेरे अविनाशी स्वरुप को
मूढ़ लोक है नहीं जानता.
परमात्मा रहस्य है...सुंदर पोस्ट !
भूत, भविष्य, वर्तमान के
ReplyDeleteसभी प्राणियों को मैं जानता.
लेकिन अर्जुन इतना जानो
मुझे कोई भी नहीं जानता....
सच कहा है उस अनत को कौन जन सका है आज तक ... कमाल की व्याख्या ...
प्रगट नहीं होता मैं सबको
ReplyDeleteढका योगमाया से रहता.
मेरे अविनाशी स्वरुप को
मूढ़ लोक है नहीं जानता.
यही तो माया है प्रभु की
बहुत बढिया, आभार!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया..
ReplyDeleteसभी दोहे उत्तम विचार लिए..
:-)
हरी अनंत हरी कथा अनंता...
ReplyDeleteसुन्दर व्याख्या... आभार
सुन्दर व्याख्या. आभार!
ReplyDeleteभक्त मुझे जानते हैं, मुझे भक्ति को जानना है।
ReplyDeleteसुंदर व्याख्या,,,,आभार
ReplyDeleteRECENT POST-परिकल्पना सम्मान समारोह की झलकियाँ,
प्रगट नहीं होता मैं सबको
ReplyDeleteढका योगमाया से रहता.
मेरे अविनाशी स्वरुप को
मूढ़ लोक है नहीं जानता.
बहुत ही सुन्दर शब्दों का संगम ...