मेरी प्रकाशित पुस्तक 'श्रीमद्भगवद्गीता (भाव पद्यानुवाद)' के कुछ अंश:
तेरहवां अध्याय
(क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभाग-योग-१३.१ -११)
इस शरीर को सुनो धनञ्जय
क्षेत्र रूप में जाना जाता.
क्षेत्रज्ञ उसे तत्वविद हैं कहते
जो मनुष्य है इसे जानता. (१३.१)
क्षेत्र रूपी शरीर में अर्जुन
तुम क्षेत्रज्ञ मुझे ही जानो.
क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ ज्ञान को
मेरे मत में ज्ञान ही जानो. (१३.२)
क्या है क्षेत्र, है किस प्रकार का,
क्या हैं विकार व कहाँ से आते?
क्षेत्रज्ञ स्वरुप, उसके प्रभाव को
संक्षेप में अर्जुन हम समझाते. (१३.३)
ऋषियों ने अनेक वेदमंत्रों में
बहु विधि से गान किया है.
ब्रह्म सूत्र व पदों के द्वारा
युक्तियुक्त स्पष्ट किया है. (१३.४)
पंच महाभूत, अहंकार व बुद्धि,
अव्यक्त, मन व दसों इन्द्रियां.
इच्छा और द्वेष व सुख दुःख
और विषय आसक्त इन्द्रियां. (१३.५)
स्थूल शरीर चेतना व स्थिरता,
ये सब शरीर के ही हैं लक्षण.
सहित विकार इन्द्रियों के मैंने
किया क्षेत्र का सूक्ष्म है वर्णन. (१३.६)
नम्र भाव व दम्भ न करना
सहनशील, सरल भाव का होना.
गुरु सेवा, शुचिता व अहिंसा
स्थिरता व आत्मसंयम का होना. (१३.७)
हो वैराग्य इन्द्रिय विषयों में
अहंकार जो मन में न करता.
जन्म मृत्यु, रोग, वृद्धावस्था
दुखादि दोष का चिंतन करता. (१३.८)
अनासक्त, पुत्र स्त्री व घर का
मन में मोह नहीं वह रखता.
इष्ट अनिष्ट प्राप्त हो कुछ भी
मन को एक समान है रखता. (१३.९)
अनन्य योग से मुझमें श्रद्धा
एवम अविचल भक्ति है रखता.
एकांत स्थान में रह कर के,
जन समुदाय में न खुश रहता. (१३.१०)
अध्यात्मज्ञान में जो स्थिर ,
ब्रह्मज्ञान का अर्थ समझता.
तत्वज्ञान ही ज्ञान हैं कहते,
अन्य सभी अज्ञान समझता. (१३.११)
........ क्रमशः
© कैलाश शर्मा