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Thursday, November 28, 2013
Saturday, November 23, 2013
Sunday, November 17, 2013
हाइकु/तांका
(१)
कौन है जिंदा
शहर कब्रस्तान
दफ़न ख़्वाब.
ख्वाबों की
लाश
कन्धों पर ढो रहा
जिंदा है कैसे?
(३)
मन का पंछी
बेचैन उड़ने को
घायल पंख.
(४)
मन का पंछी
बंधा रिश्ते डोर में
तोड़ न पाए.
(५)
आत्मा है पंछी
कब है बाँध पाया
शरीर इसे.
(६)
क्या है
तुम्हारा
किस पर गुमान
छोड़ जाना है.
(७)
बांटते जाना
अंतर्मन से प्यार
असली खुशी.
(८)
जीना ज़िंदगी
टुकड़ों
टुकड़ों में
मुश्किल
होता.
(९)
सुनेगा कौन
अहसास दिल के
मुर्दों के बीच
इंसान नहीं जिंदा
हैवानों का है राज.
(१०)
राह के कांटे
चुनते चलो तुम
होगा आसान
पीछे आने वालों को
राहों पर चलना.
.....कैलाश शर्मा
Friday, November 08, 2013
श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (५८वीं कड़ी)
मेरी प्रकाशित पुस्तक 'श्रीमद्भगवद्गीता (भाव पद्यानुवाद)' के कुछ अंश:
पंद्रहवां अध्याय
(पुरुषोत्तम-योग-१५.१-१०) जिसकी जड़ ऊपर शाखाएं नीचे फैलीं
पीपल अव्यय विश्वरूप वृक्ष है होता.
वेद हैं पत्ते इस विश्व रूप वृक्ष के
जो यह जानता, वेदों का ज्ञाता होता. (१५.१)
ऊपर नीचे फ़ैली शाखायें
वृद्धि गुणों से प्राप्त हैं करतीं.
विषयों के अंकुर हैं फूटते
जड़ें कर्म बंधन में हैं बांधती. (१५.२)
रूप है इसका देख न पाते,
आदि, अंत, आधार न दिखता.
अति दृढ मूलों वाला पीपल
दृढ अनासक्ति शस्त्रों से कटता. (१५.३)
उस स्थिति को प्राप्त करो तुम
जाकर नहीं इस लोक में आते.
आदि पुरुष की शरण में जाओ
जिससे विस्तार संसार है पाते. (१५.४)
जो है अभिमान व मोह विहीना
आसक्ति दोष पर जीत है पायी.
आत्म ज्ञान में नित्य है स्थित
मुक्ति सर्व कामनाओं से पायी. (१५.५)
मुक्त है सुख दुःख के द्वंद्वों से
निवृत्त अविद्या से जो हो जाते.
ऐसे उत्तम जो ज्ञानी जन हैं
उस अविनाशी पद को हैं वे पाते. (१५.५)
वही परम धाम है मेरा
पाकर जन है नहीं लौटता.
नहीं सूर्य शशि या अग्नि
मेरा धाम प्रकाशित करता. (१५.६)
जग के समस्त देहधारी प्राणी में
अंश मेरा ही जीवात्मा रहता.
प्रकृति में स्थित इन्द्रिय व मन
भोगों में है आकर्षित करता. (१५.७)
जिस शरीर को त्यागे जीवात्मा
उससे इन्द्रियां ग्रहण है करता.
नव शरीर में उनको ले जाता
जैसे वायु सुगंध ग्रहण है करता. (१५.८)
कान नेत्र त्वचा रसना से
गंध व मन का ले आश्रय.
वह जीवात्मा ही है भोगता
सभी इन्द्रियों के विषय. (१५.९)
एक शरीर त्याग जब दूजे में जाते
या उसमें स्थित हो विषय भोगते.
ज्ञानचक्षु से देखें हैं ज्ञानी यह सब
पर विमूढ़ जीवात्मा है देख न पाते. (१५.१०)
......क्रमशः
....कैलाश शर्मा
Saturday, November 02, 2013
किसी देहरी आज अँधेरा न रहने दें
किसी देहरी आज अँधेरा न रहने दें,
आओ बस्ती झोपड़ियों में दीप जलाएं।
आओ बस्ती झोपड़ियों में दीप जलाएं।
अपनों के तो लिये सजाये कितने सपने,
सोचा नहीं कभी उनका जिनके न अपने,
भूखे पेट गुज़र जाती हर रातें जिनकी,
चल कर के उनमें भी एक आस जगाएं।
सोचा नहीं कभी उनका जिनके न अपने,
भूखे पेट गुज़र जाती हर रातें जिनकी,
चल कर के उनमें भी एक आस जगाएं।
बना रहे हैं जो दीपक औरों की खातिर,
उनके घर में आज अँधेरा कितना गहरा,
बिजली की जगमग में दीपक पड़े किनारे,
इंतज़ार सूनी आँखों में, दीपक बिक जाएँ।
उनके घर में आज अँधेरा कितना गहरा,
बिजली की जगमग में दीपक पड़े किनारे,
इंतज़ार सूनी आँखों में, दीपक बिक जाएँ।
महलों की जगमग चुभने लगती आँखों में,
अगर अँधेरा रहे एक भी घर में बस्ती के,
लक्ष्मी नहीं है घटती गर दुखियों में बाँटें,
सूखे होठों पर कुछ पल को मुस्कानें लाएं।
अगर अँधेरा रहे एक भी घर में बस्ती के,
लक्ष्मी नहीं है घटती गर दुखियों में बाँटें,
सूखे होठों पर कुछ पल को मुस्कानें लाएं।
जब तक जगमग न हो घर का हर कोना,
अर्थ नहीं कोई, एक कोने में दीप जलाएं.
**दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें**
....कैलाश शर्मा