मेरी प्रकाशित पुस्तक 'श्रीमद्भगवद्गीता (भाव पद्यानुवाद)' के कुछ अंश:
सत्रहवाँ अध्याय
(श्रद्धात्रयविभाग-योग-१७.१-१३)
अर्जुन :
शास्त्रविहित विधि न मान कर
केवल श्रद्धायुक्त यज्ञ हैं करते.
सत्व, रज या तामसिक है होती
उनकी निष्ठा को क्या कहते? (१७.१)
श्री भगवान :
स्वभाव जनित देहधारी मैं
श्रद्धा तीन प्रकार की होती.
उसे सुनो आगे तुम अर्जुन
सत् रज और तामसिक होती. (१७.२)
समस्त प्राणियों की श्रद्धा
अपने मन अनुरूप है होती.
श्रद्धा के अनुसार है प्राणी
वैसा वह जैसी श्रद्धा है होती. (१७.३)
सात्विक जन देवों को पूजते,
राक्षस यक्ष राजसिक भजते.
तामसिकप्रवृति के जो जन हैं
प्रेत भूतगणों का पूजन करते. (१७.४)
शास्त्रोक्त विधि न मानकर
घोर तपस्या जो जन करते.
अहंकार, दम्भ से भर कर
काम राग बल से तप करते. (१७.५)
पंचभूत व मेरे स्वरुप को
स्थित शरीर में कष्ट हैं देते.
ऐसे अविवेकी मनुजों को
असुर वृत्ति वाला हैं कहते. (१७.६)
भोजन तीन प्रकार का होता
जो मनुजों को प्रिय लगता.
तीन तरह तप यज्ञ दान भी
भेद मैं इनके तुमको कहता. (१७.७)
आयु सत्व आरोग्य का कारक
रसयुक्त सुख प्रीत बढाता.
स्थिर स्निग्ध व रुचिकर हो
भोजन वह सात्विक प्रिय होता. (१७.८)
कटु खट्टा नमकीन व तीखा
रूखा गर्म जलन जो करता.
दुःख शोक रोग का कारक
भोज राजस को प्रिय लगता. (१७.९)
बासी रसहीन दुर्गन्धयुक्त
न ठीक पका जो भोजन होता.
जूठा व अपवित्र है भोजन
तामस जन को है प्रिय होता. (१७.१०)
शास्त्रोक्त विधि पालन कर
जो अनुष्ठान यज्ञ का होता.
फल इच्छा रहित जो करते
यज्ञ है वह सात्विक होता. (१७.११)
फल इच्छा से हे अर्जुन!
दम्भ प्रदर्शन यज्ञ हैं करते.
ऐसा यज्ञ है जो भी करता
उसे राजसी यज्ञ हैं कहते. (१७.१२)
विधिविहीन व मंत्रहीन जो
अन्न दान आदि न करते.
दक्षिणा श्रद्धा हीन यज्ञ को
शास्त्र यज्ञ तामसिक कहते. (१७.१३)
....क्रमशः
....कैलाश शर्मा
सत्रहवाँ अध्याय
(श्रद्धात्रयविभाग-योग-१७.१-१३)
अर्जुन :
शास्त्रविहित विधि न मान कर
केवल श्रद्धायुक्त यज्ञ हैं करते.
सत्व, रज या तामसिक है होती
उनकी निष्ठा को क्या कहते? (१७.१)
श्री भगवान :
स्वभाव जनित देहधारी मैं
श्रद्धा तीन प्रकार की होती.
उसे सुनो आगे तुम अर्जुन
सत् रज और तामसिक होती. (१७.२)
समस्त प्राणियों की श्रद्धा
अपने मन अनुरूप है होती.
श्रद्धा के अनुसार है प्राणी
वैसा वह जैसी श्रद्धा है होती. (१७.३)
सात्विक जन देवों को पूजते,
राक्षस यक्ष राजसिक भजते.
तामसिकप्रवृति के जो जन हैं
प्रेत भूतगणों का पूजन करते. (१७.४)
शास्त्रोक्त विधि न मानकर
घोर तपस्या जो जन करते.
अहंकार, दम्भ से भर कर
काम राग बल से तप करते. (१७.५)
पंचभूत व मेरे स्वरुप को
स्थित शरीर में कष्ट हैं देते.
ऐसे अविवेकी मनुजों को
असुर वृत्ति वाला हैं कहते. (१७.६)
भोजन तीन प्रकार का होता
जो मनुजों को प्रिय लगता.
तीन तरह तप यज्ञ दान भी
भेद मैं इनके तुमको कहता. (१७.७)
आयु सत्व आरोग्य का कारक
रसयुक्त सुख प्रीत बढाता.
स्थिर स्निग्ध व रुचिकर हो
भोजन वह सात्विक प्रिय होता. (१७.८)
कटु खट्टा नमकीन व तीखा
रूखा गर्म जलन जो करता.
दुःख शोक रोग का कारक
भोज राजस को प्रिय लगता. (१७.९)
बासी रसहीन दुर्गन्धयुक्त
न ठीक पका जो भोजन होता.
जूठा व अपवित्र है भोजन
तामस जन को है प्रिय होता. (१७.१०)
शास्त्रोक्त विधि पालन कर
जो अनुष्ठान यज्ञ का होता.
फल इच्छा रहित जो करते
यज्ञ है वह सात्विक होता. (१७.११)
फल इच्छा से हे अर्जुन!
दम्भ प्रदर्शन यज्ञ हैं करते.
ऐसा यज्ञ है जो भी करता
उसे राजसी यज्ञ हैं कहते. (१७.१२)
विधिविहीन व मंत्रहीन जो
अन्न दान आदि न करते.
दक्षिणा श्रद्धा हीन यज्ञ को
शास्त्र यज्ञ तामसिक कहते. (१७.१३)
....क्रमशः
....कैलाश शर्मा