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Wednesday, May 14, 2014

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (१८वां अध्याय)

                                  मेरी प्रकाशित पुस्तक 'श्रीमद्भगवद्गीता (भाव पद्यानुवाद)' के कुछ अंश: 

      अठारहवाँ अध्याय 
(मोक्षसन्यास-योग-१८.२६-३५)  

आसक्तिरहित धीर उत्साही 
अहंकार न वाणी में होता.
निर्विकार जो हार जीत में
कर्ता वह सात्विक है होता.  (१८.२६)

आसक्त, कर्मफल की इच्छा,
लोभी हिंसक अपवित्र है होता.
हर्ष और शोक युक्त जो रहता
वह राजसिक प्रवृति का होता.  (१८.२७)

अस्थिर बुद्धि विवेकशून्य है,
जिद्दी, धूर्त और अपमानी.
वह है तामस प्रवृति का होता 
करता शोक आलसी कामी.  (१८.२८)

तीन भेद बुद्धि और धृति के 
गुणानुसार सुनो हे अर्जुन!
अलग अलग से मैं करता हूँ 
तुमको उनका विस्तृत वर्णन.  (१८.२९)

कार्य अकार्य, धर्म अधर्म का 
भय अभय का भेद जानती.
बंधन और मोक्ष का अंतर 
जो है सात्विकी बुद्धि जानती.  (१८.३०)

धर्म, अधर्म, कार्य, अकार्य को 
जो यथार्थ में नहीं जानती.
ऐसी बुद्धि जगत में अर्जुन 
राजस गुण वाली कहलाती.  (१८.३१)

अंधकार से आच्छादित जो 
बुद्धि अधर्म को धर्म मानती.
वह तामसी बुद्धि है अर्जुन 
सर्व अर्थ विपरीत मानती.  (१८.३२)

अचल धैर्य व चित से अर्जुन  
मन एकाग्र योग से करता.
मन इन्द्रिय व प्राण संयमित
सदा सात्विकी जन है करता.  (१८.३३)

कर्मफलों का आकांक्षी धृति से, 
धारण अर्थ, भोग, धर्म को करता.
उनमें अत्यंत आसक्ति उसकी 
वह जन है धृति राजसी रखता.  (१८.३४)

जिस धृति के कारण दुर्बुद्धि 
स्वप्न शोक भय को अपनाता.
युक्त विषाद और मद से वह 
धृति तामसी वाला कहलाता.  (१८.३५)

               ....क्रमशः

....कैलाश शर्मा 

Saturday, May 03, 2014

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (१८वां अध्याय)


                                  मेरी प्रकाशित पुस्तक 'श्रीमद्भगवद्गीता (भाव पद्यानुवाद)' के कुछ अंश: 

      अठारहवाँ अध्याय 
(मोक्षसन्यास-योग-१८.१३-२५)  

सब कर्मों की सिद्धि के हेतु
और अंत करने कर्मों को.
कहे सांख्य दर्शन में अर्जुन
पांच उपाय बताता तुमको.  (१८.१३)

शरीर अधिष्ठान कर्म का 
तथा कर्म का कर्ता होता.
इन्द्रिय और विविध कर्म हैं
हेतु पांचवां दैव है होता.  (१८.१४)

मन वाणी या शरीर से 
मनुज कर्म जो भी हैं करते.
धर्माकूल हों या न हों 
ये पाँचों निमित्त है बनते.  (१८.१५)

सब कर्मों में पांच ये हेतु 
फिर भी आत्मा को कर्ता कहता.
वह विमूढ़ दुर्बुद्धि जन है 
जो नहीं सत्य का दर्शन करता.  (१८.१६)

मैं कर्ता हूँ भाव न जिसमें, 
आसक्त न मन कर्मों में करता.
वध करके भी इन सब का,
नहीं मारता या बंधन में पडता.  (१८.१७)

ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय ये तीनों 
कर्म प्रवृति के हैं कारण होते.
साधन, कर्म और है कर्ता 
कर्मसंग्रह तीन प्रकार के होते.  (१८.१८)

गुणानुसार तीन प्रकार के 
ज्ञान, कर्म और हैं कर्ता.
शास्त्रों में इनकी व्याख्या
मैं यथार्थ में तुमको कहता.  (१८.१९)

अविनाशी अविभक्त आत्मा 
एक है सब प्राणी में देखता.
सात्विक उस ज्ञान को जानो 
जिससे ज्ञानी पुरुष देखता.  (१८.२०)

समस्त प्राणियों के अन्दर के 
भावों को अलग अलग जानता.
तुम राजस उस ज्ञान को जानो
जिससे वह ऐसा है मानता.  (१८.२१)

जो ज्ञान एक कर्म तक सीमित 
चाहे व्यर्थ और हेतु रहित है.
ऐसे ज्ञान को तुम तामस जानो.
तुच्छ और जो तत्व रहित है.  (१८.२२)

शास्त्रविहित दैनिक कर्मों को 
राग, द्वेष, मोह तज करता.
सात्विक कर्म है वह कहलाता,
जो निष्काम भाव से करता.  (१८.२३)

फलप्राप्ति को कर्म है करता 
परम कष्ट साध्य वो होता.
अहंकार से युक्त है करता 
कर्म राजसिक है वह होता.  (१८.२४)

हानि लाभ को बिना विचारे 
न सामर्थ्य है अपनी जानें.
करता कर्म मोह के वश में 
तामस ऐसे कर्म को जानें.  (१८.२५)

              .....क्रमशः
....कैलाश शर्मा