बन न
पाया पुल शब्दों का,
भ्रमित
नौका अहसासों की
मौन के
समंदर में,
खड़े है
आज भी अज़नबी से
अपने
अपने किनारे पर।
****
अनछुआ
स्पर्श
अनुत्तरित
प्रश्न
अनकहे
शब्द
अनसुना
मौन
क्यों
घेरे रहते
अहसासों
को
और
माँगते एक जवाब
हर पल तन्हाई में।
****
रात भर
सिलते रहे
दर्द की
चादर,
उधेड़ गया
फिर कोई
सुबह
होते ही.
****
ख्वाहिशों
की दौड़ में
भरते
जाते मुट्ठियाँ,
पाते
विजय रेखा पर
अपने आप
को
बिलकुल
रीता और अकेला।
...©कैलाश शर्मा