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Thursday, September 30, 2010

मैं अपना घर ढूँढ रहा हूँ.......




मन्दिर में भी मैं ही हूँ,
मस्जिद में भी मैं ही हूँ।
क्यों लड़ते हो मेरी खातिर,
हर इन्सां में मैं ही हूँ।

क्या नाम बदलने से मेरा,
अस्तित्व बदल जाता है।

कहो राम,रहीम या जीसस,
रस्ता तो मुझी तक आता है।

मंदिर में हो या मस्जिद में,
सब का सर झुकते देखा है।
क्यों फर्क करो तुम मुझ में,
मैंने सब को सम देखा है।

आती हंसी तुम्हारी मति पर,
मेरे नाम पर लड़ते देखा।
ईश्वर, अल्लाह, राम सभी हैं,
क्या इनको भी लड़ते देखा?

जिसने स्वयं रचा है जग को,
तुम घर बना सकोगे उसका?
क्यों व्यर्थ ढूँढ़ते मंदिर में तुम,
मस्जिद में वह रहता है क्या?

जो तुम चाहो मुझे देखना,
झांको अपने अंतर्मन में।
दुखियों के बहते आंसू में,
और किसी के भूके तन में।

मैं अपना घर ढूँढ रहा हूँ,
मुझे नज़र वह कहीं आता।
मंदिर मस्जिद दीवारें हैं,
उनसे क्या है मेरा नाता?

Sunday, September 26, 2010

बेटी

क्यों बेटा वारिस कहलाता, बेटी सिर्फ पराया धन,
किसने देखा है, इनके अंतर्मन का अपनापन।

क्यों होता है इतना अंतर, इनके लालन पालन में,
क्यों हरदम हर ख़ुशी डालते, बेटे के ही आँचल में।

भूल एक सी दोनों की, पर निर्णय कितना अलग अलग था,
शायद तुम यह समझ न पायीं, यह मेरे अंतर का डर था।

एक प्यार है केवल सतही, छुपा दूसरा गहरे मन में,
आधारित है एक स्वार्थ पर,दूजा अंकित निर्मल मन में।

प्यार देखना चाहो तो, तुम झांको बेटी के नयनों में,
ख़ुशी ढूँढना चाहो तो, तुम ढूँढो उसकी मुस्कानों में।

कितना निर्मम नियम, जो दिल के पास वह तुम से दूर रहेगा,
जो है दिल से दूर बहुत, नज़र दुनियां की में वह वारिस होगा.

Friday, September 24, 2010

दीपक का दर्द



जब तक तेल है
दीपक में
बाती भी जलती है,
पतंगे भी चारों ओर मंडराते हैं,
रोशनी की परछाईं भी
नाचती
और बतियाती हैं चारों ओर.

लेकिन
दीपक का तेल
जब चुक जाता है,
पतंगे उड़ जाते हैं
कहीं और,
रोशनी की अठखेलियाँ भी
छुप जाती हैं
अँधेरे की बाँहों में.

स्नेहहीन दीपक
रह जाता है
अकेला
ढूँढने अपना अस्तित्व
अँधेरे में.

Friday, September 17, 2010

मुझे घूंट देदो बस विष का ......



क्यों करते हो आस निकालेगा कोई आकर के तुमको,
उलझ गये हो जब अपने ही बुने हुए ताने बाने में.

नहीं कोई भी कन्धा जिस पर
सिर रख कर के तुम रो लेते.
नहीं कोई भी बांह पकड़ कर
जिसको यहाँ संभल तो लेते.

चलो ठीक था अगर डुबाई होती नौका तूफानों ने,
लेकिन धोखा दिया किनारे ने ही हम को अनजाने में.

जितना धूमिल करना चाहा
चित्र तुम्हारा उतना निखरा.
जितना दर्द समेटा उर में
उतना ही नयनों से बिखरा.

जाना ही था अगर तुम्हें तो ले जाती यादें भी अपनी,
नहीं घुमड़ती रहतीं जिससे यह मेरे इस वीराने में.

क्या अब कुछ जीवन से मांगे,
इतना ही है बोझ बन गया.
क्या होगा फिर प्यार ढूंढ़ कर,
यही स्वयं जब रोग बन गया.

ले जाओ अमृत अपना यह, मुझे घूंट देदो बस विष का,
इतना मोह म्रत्यु से अब तो सफल न होगी बहकाने में.

Saturday, September 11, 2010

अभी मरघट दूर है.........



ठहर
थोडा सुस्ताले,
कब तक ढोता जायेगा,
अपने जीवन की लाश
अपने कन्धों पर,
अभी मरघट दूर है........

रोता है,
पागल,
अपनी ही मौत पर
कहीं रोया करते हैं.
तू ज़िन्दगी का मसीहा,
जिसने कभी हार नहीं मानी,
आज अपनी ही मौत से घबराता है.

यह विक्रमादित्य के कंधे पर रखा हुआ
वैताल का शव नहीं
जो मौन भंग होने पर
फिर पेड़ पर जाकर बैठ जाए
और कन्धों का बोझ हलका कर दे,
इसे तो तुम्हें मरघट तक ढोना ही होगा.

माना बहुत बोझ है,
लेकिन
दूसरों के कन्धों पर जाने से बेहतर है
कि अपनी लाश को
अपने ही कन्धों पर ले जाकर
मरघट में
अपने ही हाथों से अग्नि को सोंप दिया जाये.

क्या अफ़सोस है
कि तेरी लाश पर
किसी ने दो गज कफ़न भी नहीं डाला?
क्या दो गज कफ़न का टुकड़ा
इतने लम्बे सफ़र के लिए काफी होता?
ओढ़ ले अपनी बीती यादों का कफ़न
जो जितना पुराना होता जायेगा,
उतना ही और नया लगेगा,
जिस तरह कि हर नयी चोट
पुरानी यादों को और भी
उभार जाती है.

अपने इन आंसुओं को
व्यर्थ में मत बहा,
अभी तो इन्ही से तुझे अपना तर्पण करना है.
चल उठ,
अँधेरा बढ़ रहा है
और तुझे बहुत दूर चलना है,
उठाले अपने जीवन की लाश,
अपने ही कन्धों पर,
अभी मरघट दूर है..........




Thursday, September 02, 2010

कृष्ण को गुहार




कहाँ खो गये हो मुरलीधर,
ढूंढ़ रहे हैं भारतवासी
जय घोषों से गूंजें मंदिर,
पर अंतर में गहन उदासी


नारी की है लाज लुट रही,
नहीं द्रोपदी आज सुरक्षित
मंदिर रोज नए बनते हैं,
पर मानव है छत से वंचित


लाखों के अब मुकुट पहन कर,
विस्मृत किया सुदामा को क्यों?
व्यंजन सहस्त्र सामने हों जब,
कोदो वां याद आये क्यों?


मुक्त करो अपने को भगवन
धनिकों के मायाजालों से
मत तोड़ो विश्वास भक्त का,
मुक्त करो अब जंजालों से


तुमने ही आश्वस्त किया था,
जब भी होगा नाश धर्म का
आऊंगा मैं फिर धरती पर
करने स्थापित राज्य धर्म का


बाहर आओ अब तो भगवन
मंदिर की इन दीवारों से
नहीं बनो रनछोड़ दुबारा,
करो मुक्त अत्याचारों से