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Wednesday, October 06, 2010

पेट की आग .....

तोडती है पत्थर , तपती हुई धूप में,

कौन आग तेज़ है,पेट की या धूप की .



मेहनत के प्रतिफल से पेट नहीं भर पाया,

जिसने तन को बेचा दुनिया ने ठुकराया,

दोनों ने श्रम बेचा, किसको हम पाप कहें,

दोनों के श्रम पीछे, मज़बूरी थी भूख की.



बचपन सूना सूना, यौवन गदराया,

यौवन के चहरे पर वृद्धापन गहराया,

नयन के झरोखे से स्वप्न झांकते रहे,

निशा भी चली गयी राह तकते नींद की.



अवगुण छुप जाते,सौने की ज़गमग में,

अनचाहा भार बना,यौवन उसको पग में,

पद्मिनी तुम्हें हर युग में ज़लना ही होगा,

चाहे दहेज़ के नाम, सजा या रूप की.

12 comments:

  1. सही कह रहे हैं………………यही तो सच है ।

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  2. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति के साथ ही एक सशक्त सन्देश भी है इस रचना में।

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  3. .

    इस आग में जलते हुए ही तो खरा सोना हो गयी पद्मिनी , आने वाले कई युगों के लिए।

    .

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  4. इस सच्चाई का इससे बेहतरीन बयां और क्या होगा..
    बहुत ही अच्छा..

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  5. सच को बयान एक सार्थक रचना.........बहुत ही अच्छी पंक्तिया

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  6. जिंदगी के कड़वे सच का वर्णन करती हुई मार्मिक पंक्तियां।

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  7. आजके तल्ख़ हालात को बखूबी बयां करती आपकी ये रचना समसामयिक और विलक्षण है...बधाई स्वीकारें

    नीरज

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  8. @वन्दना जी,
    @संजय जी,
    @डॉ.दिव्या जी,
    @प्रतीक जी,
    @Music Jockie
    @डॉ.मोनिका जी,
    @महेंद्र जी,
    @नीरज जी

    आप की प्रतिक्रिया और प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद...नवरात्रि की हार्दिक शुभ कामनाएं......

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  9. जीवन की सच्चाई को व्यक्त करती हुई कविता .......

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  10. Adaraneeya sir,
    bahuta hi kama shabdon men aapne jeevan kee sachchaaii bayan karne valee shandar rachna prastut ki hai.
    Navratri ki hardik shubhkamnayen.
    Poonam

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  11. @अनु जी
    @पूनम जी
    आपकी प्रतिक्रिया और प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद...नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएं ...जय माता दी

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