पैरों पर
चलना सीखते ही
बढ़ गये पैर,
माँगने को भीख
या बेचने को
गुलाब के फूल
और गज़रा
प्रेमियों को
चौराहे पर,
बरतन साफ़ करने
और चाय देने
बस्ती के ढाबे पर,
गलत पाना देने पर
उस्ताद जी से
थप्पड़ खाने को
ऑटो मैकेनिक की
दुकान पर.
हसरत भरी नज़रों से
देखते हैं,
स्कूल जाते,
पार्क में खेलते
हंसते हुए बच्चों को,
और झटक कर सर
फिर लग जाते हैं
अपने धन्धे पर.
गोदी से उतरते ही,
भूल कर
बीच के अंतराल को,
फँस जाते हैं
रोटी कपड़े के जाल में,
शायद झुग्गियों में
बचपन नहीं होता.