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Friday, June 03, 2011

पतंग

पतंग बनकर
रह गयी है
ज़िंदगी.

छूती है कभी ऊँचाई 
आसमान की,
कट कर गिर जाती है
कभी ज़मीन पर
और पहुँच जाती है
किसी और के हाथों में.
उड़ने, कटने
और गिरने का क्रम
रहता है जारी 
ज़िंदगी भर.

उड़ती है,
गिरती है,
फटती है,
और हर बार 
फिर एक चेपी का बोझ
बढ़ जाता है
फिर से उड़ने में.

कई बार कटने पर 
फंस जाती है
किसी ऊँचे पेड़ की शाखा में,
और ज़िंदगी गुज़र जाती है
हवाओं के थपेड़े खाते
और शाखाओं से
सुलझाने में ड़ोर को.

कितने हाथों में बदली
ड़ोर पतंग की,
लेकिन कटने के बाद
भूल गया वह पतंग को
और घड़ी करने लगा ड़ोर
फिर से चरखी पर,
दूसरी पतंग को उड़ाने को.

नहीं मिली कोई ड़ोर
न कोई हाथ
जो रहता साथ,
और उड़ती रहती मैं
एक ही हाथ में
एक ही ड़ोर के सहारे
उम्र भर.

48 comments:

  1. patang v jindgi kee samanta ke madhayam se jindgi ko samjhne ka anoothh prayas hai aapki rachna .sarthk abhivyakti .sadar .

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  2. ज़िन्दगी की यही सच्चाई है जिसे आपने बखूबी बयाँ किया है।

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  3. ज़िंदगी का यह फलसफा भी भाया ...अच्छी प्रस्तुति

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  4. शायद यही जीवन का सार है .......सादर !

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  5. जीवन का सत्य का किरदार आपकी पतंग ने बखूबी निभाया है .....
    खुबसूरत अभिव्यक्ति

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  6. उड़ती है,
    गिरती है,
    फटती है,
    और हर बार
    फिर एक चेपी का बोझ
    बढ़ जाता है
    फिर से उड़ने में.yahi to kram hai nirantarta ka

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  7. बहुत अच्छा लिखा है सर!

    सादर

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  8. सच्चाई से कही गयी बात सारगर्भित पोस्ट , आभार

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  9. किसी न किसी डोर से बंधी रहना चाहती है यह जिन्दगी।

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  10. beautifully personification of kite !!
    I loved the flow of poem.

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  11. आपकी उम्दा प्रस्तुति कल शनिवार (04.06.2011) को "चर्चा मंच" पर प्रस्तुत की गयी है।आप आये और आकर अपने विचारों से हमे अवगत कराये......"ॐ साई राम" at http://charchamanch.blogspot.com/
    चर्चाकार:-Er. सत्यम शिवम (शनिवासरीय चर्चा)
    स्पेशल काव्यमयी चर्चाः-“चाहत” (आरती झा)

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  12. hamari sabki jindgi patang ki tarh hi hai.......
    bahut sunder

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  13. उड़ती है,
    गिरती है,
    फटती है,
    और हर बार
    फिर एक चेपी का बोझ
    बढ़ जाता है
    बिल्‍कुल सच ....

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  14. कितने हाथों में बदली
    ड़ोर पतंग की,
    लेकिन कटने के बाद
    भूल गया वह पतंग को
    और घड़ी करने लगा ड़ोर
    फिर से चरखी पर,
    दूसरी पतंग को उड़ाने को

    पतंग को कटना ही होता है कैलाश जी , मार्मिक और संवेदनशील ह्रदय बधाई

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  15. बहुत सटीक तुलना की है आपने इस रचना में जीवन की!

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  16. kailash ji -i have given your blog's link on my blog ''ye blog achchha laga ''my blog's URL is ''http://yeblogachchhalaga.blogspot.com''.

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  17. क्या बात है..वाह!!

    बेहतरीन...

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  18. कितना भी उड़े पर आना तो जमीन पर ही है

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  19. कुछ अलग सी लगी यह रचना, दिल को छूती हुई ! आभार!

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  20. मन को छूने वाली सुन्दर अभिव्यक्ति्

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  21. जीवन के यथार्थ का सुन्दर चित्रण !
    सचमुच, जीवन भी पतंग की ही तरह है ! सब अपनी अपनी ऊंचाई को छूने में लगे रहते हैं मगर अंत में ज़मीन पर आ जाते हैं !
    कविता में जीवन की संवेदना समाहित है !

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  22. पतंग बनकर
    रह गयी है
    ज़िंदगी.


    छूती है कभी ऊँचाई
    आसमान की,
    कट कर गिर जाती है
    कभी ज़मीन पर
    और पहुँच जाती है
    किसी और के हाथों में.

    बहुत सुंदर हैं ये पंक्तियाँ,
    विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

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  23. जीवन के रंगों की पतंग के माध्यम से सुंदर अभिव्यक्ति ...

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  24. कितने हाथों में बदली
    ड़ोर पतंग की,
    लेकिन कटने के बाद
    भूल गया वह पतंग को
    और घड़ी करने लगा ड़ोर
    फिर से चरखी पर,
    दूसरी पतंग को उड़ाने को.

    जीवन का सच लिए पंक्तियाँ ..... बहुत सुंदर

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  25. सुंदर तुलना. जीवन का सच बयान करती भावपूर्ण रचना.

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  26. सच्चा जीवन द्रशन । यही हकीकत है ।

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  27. ज़िंदगी सचमुच पतंग की भांति है।
    बहुत ही भावपूर्ण रचना।

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  28. अंतिम पंग्तियाँ ....मन में घुस कर चोट कर रही है ...बहुत सुंदर बड़े भाई ...

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  29. पतंग बने चाहे जिंदगी
    पर तंग न हो जिंदगी।

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  30. wastvikata ka bodh saralata se pravahit -


    छूती है कभी ऊँचाई
    आसमान की,
    कट कर गिर जाती है
    कभी ज़मीन पर
    और पहुँच जाती है
    किसी और के हाथों में.
    उड़ने, कटने----
    bahut sunder shukriya ji ,

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  31. वास्‍तव में जीवन पतंग के समान ही है, जिसकी डोर न जाने किसके हाथ है? अच्‍छी रचना।

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  32. उड़ती है,
    गिरती है,
    फटती है,
    और हर बार
    फिर एक चेपी का बोझ
    बढ़ जाता है
    फिर से उड़ने में.

    शानदार......कुछ अलग....बेहतरीन|

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  33. पतंग के माध्यम से जीवन के उतार चढ़ाव को सजीव तरीके से रखा है आपने ...

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  34. yah aik sanyog hee kahen ki aaj aik rachna maine post kee hai... aur main aapke blog me aayi to kuch kuch vaisee hee ye post... achha laga dekh kar...aur yah sundar prastuti ke liye aapko badhai..

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  35. aadarniy sir
    jivan ki kadvi sachchai ko patang ke vikalp ke rup me kitni khoob surati ke saath prastut kiya hai aapne. bahut hi lazwab
    bahut hi yatharth likha hai aapne
    hardik badhai ke saath
    poonam

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  36. पतंग और जीवन - बहुत सुंदर विवेचना प्रस्तुत की है आपने| बधाई|

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  37. उडने कटने और गिरने का क्रम और हर बार थोडा थोडा बोझ लेकर फिर जीवन जीने लगना । वक्त के थपेडे भी खाती है जिन्दगी । ""कितने हाथों मे बदली ""और ""जिन्दगी भर एक डोर के सहारे उडना"" इसके अर्थ एक टिप्पणी में संभव ही नहीं है।

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  38. नहीं मिली कोई ड़ोर
    न कोई हाथ
    जो रहता साथ,
    और उड़ती रहती मैं
    एक ही हाथ में
    एक ही ड़ोर के सहारे
    उम्र भर.....

    पतंग के माध्यम से भावुक कर देने वाली गहन अभिव्यक्ति।

    .

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  39. Lovely poem! Being able to read a good hindi poem feels like bliss these days :)

    I write in Hindi too, you can read some of my hindi work at: this link.

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  40. पतंग को प्रतीक बनाकर जीवन दर्शन के मर्म को सुन्दरता पूर्वक उकेरा गया है.भावुक कर देने वाली रचना.

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  41. बहुत सटीक तुलना की है भावुक कर देने वाली रचना....

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  42. कई दिनों व्यस्त होने के कारण ब्लॉग पर नहीं आ सका

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  43. पतंग के सहारे से जीवन की सच्चाई बयान करती सुन्दर रचना.

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  44. यह रचना पहले दिन ही पढ़ गया था , कमेंट नेट समस्या के कारण रह गया था । बहुत सुंदर !


    भाईजी ,
    पूरा हिंदुस्तान हिल गया 4 जून की काली रात के बाद ।

    आपकी समर्थ लेखनी ने अवश्य कुछ लिखा होगा , वही पढ़ने आया था ।

    मैं तो आहत हो गया देख कर कि -
    अब तक तो लादेन-इलियास
    करते थे छुप-छुप कर वार !
    सोए हुओं पर अश्रुगैस
    डंडे और गोली बौछार !
    बूढ़ों-मांओं-बच्चों पर
    पागल कुत्ते पांच हज़ार !

    समय निकल कर पूरी रचना के लिए उपरोक्त लिंक पर पधारिए…
    आपका हार्दिक स्वागत है

    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  45. पतंग के बहाने जिंदगी के दर्द बयान करती सार्थक कविता के लिए बधाई स्वीकार करें।

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