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Monday, February 27, 2012
Thursday, February 23, 2012
जब ढाई आखर न जानो
आए हमको ज्ञान सिखाने,
ऊधो प्रेम मर्म क्या जानो.
पोथी पढ़ना व्यर्थ गया सब
जब ढाई आखर न जानो.
दूर कहाँ हमसे कब कान्हा,
प्रतिपल आँखों में बसता है.
प्रेम विरह में तपत रहत तन,
लेकिन मन शीतल रहता है.
तुमने प्रेम किया कब ऊधव,
मीठी विरह कशक क्या जानो.
नहीं ज्ञान को जगह तुम्हारे,
रग रग कृष्ण प्रेम पूरित है.
प्राण हमारे गए श्याम संग,
इंतजार में तन जीवित है.
केवल ज्ञान नदी सूखी सम,
प्रेम हृदय का भी पहचानो.
आयेंगे वापिस कान्हा भी,
यही आस काफ़ी जीवन को.
मुरली स्वर गूंजत अंतस में,
नहीं और स्वर भाए मन को.
ऊधव सीखो कुछ गोपिन से,
प्रेम भाव की महिमा जानो.
कैलाश शर्मा
ऊधो प्रेम मर्म क्या जानो.
पोथी पढ़ना व्यर्थ गया सब
जब ढाई आखर न जानो.
दूर कहाँ हमसे कब कान्हा,
प्रतिपल आँखों में बसता है.
प्रेम विरह में तपत रहत तन,
लेकिन मन शीतल रहता है.
तुमने प्रेम किया कब ऊधव,
मीठी विरह कशक क्या जानो.
नहीं ज्ञान को जगह तुम्हारे,
रग रग कृष्ण प्रेम पूरित है.
प्राण हमारे गए श्याम संग,
इंतजार में तन जीवित है.
केवल ज्ञान नदी सूखी सम,
प्रेम हृदय का भी पहचानो.
आयेंगे वापिस कान्हा भी,
यही आस काफ़ी जीवन को.
मुरली स्वर गूंजत अंतस में,
नहीं और स्वर भाए मन को.
ऊधव सीखो कुछ गोपिन से,
प्रेम भाव की महिमा जानो.
कैलाश शर्मा
Saturday, February 18, 2012
टूटी अलगनी
घर की अलगनी के दो छोर
जोड़े रहे दो दीवारों की दूरी,
दूर हो कर भी बने रहे
एक ही सूत्र के दो छोर.
जिसने जो चाहा टांग दिया,
ढ़ोते रहे सारे घर का बोझ
दो छोरों के बीच
और नहीं की शिकायत
कभी किसी से.
जीवन के आख़िरी पहर में
बंट गयीं दीवारें
अपनों के बीच,
टूटी अलगनी के दो छोर
ताकते हैं एक दूसरे को
नम आँखों से.
क्या दीवारें समझ पाती हैं
टूटी अलगनी के
दो छोरों का दर्द ?
कैलाश शर्मा
जोड़े रहे दो दीवारों की दूरी,
दूर हो कर भी बने रहे
एक ही सूत्र के दो छोर.
जिसने जो चाहा टांग दिया,
ढ़ोते रहे सारे घर का बोझ
दो छोरों के बीच
और नहीं की शिकायत
कभी किसी से.
जीवन के आख़िरी पहर में
बंट गयीं दीवारें
अपनों के बीच,
टूटी अलगनी के दो छोर
ताकते हैं एक दूसरे को
नम आँखों से.
क्या दीवारें समझ पाती हैं
टूटी अलगनी के
दो छोरों का दर्द ?
Monday, February 13, 2012
क्या वह प्रेम नहीं था ?
समझते रहे
एक दूसरे की चाहत
कहने से पहले ही,
उठा लिया पलकों से
एक दूसरे का गम
बिना कुछ कहे,
परिवार की हर खुशी
बनाली अपनी
और बन गये कन्धा
एक दूसरे के गम में.
ज़िंदगी की जद्दोज़हद
और भाग दौड़ ने
फंसाये रखा
अपने मकडजाल में,
नहीं गये कभी
केंडल डिनर पर,
हाथों में हाथ ड़ाल कर
नहीं घूमे सागर तट पर,
नहीं किया इज़हार
कभी शब्दों में प्यार
और न दिया कभी
लाल गुलाब.
जीवन के इस मोड़ पर
क्यों उठा यह प्रश्न
क्या उनका प्रेम,
जो सदैव रहा मौन
और नहीं था इंतज़ार
जिसे अभिव्यक्ति का,
प्रेम नहीं था ?
कैलाश शर्मा
Wednesday, February 08, 2012
हाइकु
(१)
वक़्त बदला
मौके के अनुसार
रिश्ते बदले.
(२)
माँ की ममता
छलकती आँखों से
डूबा है मन.
(३)
सपने आते
यादों को जगा जाते
क्यों चले जाते?
(४)
दर्द दिल में
बरसती है आँख
पता नहीं क्यूँ?
(५)
शोषण करो
दोष दो गरीबों को
किस्मत पर.
(६)
समझ जाता
जो होता मन बच्चा
बहलाने से.
(७)
कच्ची दीवारें
मज़बूत हैं रिश्ते
गिरेंगी नहीं.
वक़्त बदला
मौके के अनुसार
रिश्ते बदले.
(२)
माँ की ममता
छलकती आँखों से
डूबा है मन.
(३)
सपने आते
यादों को जगा जाते
क्यों चले जाते?
(४)
दर्द दिल में
बरसती है आँख
पता नहीं क्यूँ?
(५)
शोषण करो
दोष दो गरीबों को
किस्मत पर.
(६)
समझ जाता
जो होता मन बच्चा
बहलाने से.
(७)
कच्ची दीवारें
मज़बूत हैं रिश्ते
गिरेंगी नहीं.
कैलाश शर्मा
Wednesday, February 01, 2012
रोटी या किताब ?
चमचमाती स्कूल ड्रैस
पीठ पर लटकता बस्ता
हसरत जगा देता है
स्कूल जाने की.
लेकिन नज़र आता है
खांसते हुए रिक्शा चलाता बापू
घरों में झाडू पोंछा करती माँ
और फिर भी नहीं मिल पाती
भरपेट रोटी भाई बहनों को.
सबको मुफ्त शिक्षा
किताबें और ड्रैस
नहीं काफी जीने को,
भर नहीं सकता पेट
केवल किताबों से.
क्या फायदा उस शिक्षा का
जो कर दे खड़ी
बेरोजगारों की एक लम्बी क़तार.
वातानुकूलित हॉल में
बाल मज़दूरी पर बहस करना
और कानून बनाना
बहुत आसान है,
लेकिन जाकर देखें
किसी गरीब का घर
और उनकी मज़बूरी.
सड़क पर आवारागर्दी करने
चोरी या भीख माँगने से बेहतर
गाड़ी के नीचे लेटकर
नट बोल्ट खोलना,
ग्रीस और धूल से
काले हुए कपड़ों को भूल,
सपने देखना
कि बन जाऊँगा
मैं भी उस्ताद
कुछ सालों बाद.
केवल आश्वासन देने
या क़ानून बनाने से
पेट नहीं भरता,
मुझे इस पेचकस और पाने में
दिखती है शाम की रोटी
और अपना भविष्य.
कैलाश शर्मा