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Saturday, February 18, 2012

टूटी अलगनी

घर की अलगनी के दो छोर 
जोड़े रहे दो दीवारों की दूरी,
दूर हो कर भी बने रहे
एक ही सूत्र के दो छोर.


जिसने जो चाहा टांग दिया,
ढ़ोते रहे सारे घर का बोझ
दो छोरों के बीच
और नहीं की शिकायत 
कभी किसी से.


जीवन के आख़िरी पहर में
बंट गयीं दीवारें 
अपनों के बीच,
टूटी अलगनी के दो छोर 
ताकते हैं एक दूसरे को
नम आँखों से.


क्या दीवारें समझ पाती हैं 
टूटी अलगनी के 
दो छोरों का दर्द ?


कैलाश शर्मा 

45 comments:

  1. बहुत बढ़िया सर!

    सादर

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  2. बहुत ही अच्छे प्रतीक का प्रयोग किया सार्थक रचना

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  3. संबंधों की प्रखर व्याख्या

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  4. बहुत सुन्दर.....कुछ अलग सा ।

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  5. अद्भुत बिम्ब.बहुत सुन्दर ख्याल.

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  6. jeevan kaa dard ,
    bahut badhiyaa tareeke se vyakt kiyaa hai aapne
    alagnee kaa kaam sirf khaamoshee se bojh dhonaa bhar hai

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  7. क्या दीवारें समझ पाती हैं
    टूटी अलगनी के
    दो छोरों का दर्द ?
    बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति ।

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  8. जिसने जो चाहा टांग दिया,
    ढ़ोते रहे सारे घर का बोझ
    दो छोरों के बीच
    और नहीं की शिकायत
    कभी किसी से

    गूढ़ बात कही !

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  9. प्रभावित करती रचना ...

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  10. ज़िन्दगी की कहानी कहती रचना...सुंदर प्रस्तुति|

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  11. गहन रचना...कौन जाने समझ पाती हैं कि नहीं वो दीवारें..

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  12. zindgi ka satya batati rachna........

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  13. बिम्ब का अद्भुत प्रयोग। इस दर्द के दर्द को सही ढंग से अभिव्यक्त करता है।

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  14. कारुणिक!
    कटु यथार्थ का चित्रण और एक व्यथित करने वाले प्रश्न पर समाप्त होती कविता जहां से अपने ही भीतर झाँकने का दौर शुरू होता है....

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  15. a post with intense feel...
    beautiful sir..

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  16. वाह!!!!!कैलाश जी कटु यथार्थ की भावपूर्ण बहुत अच्छी अभिव्यक्ति,सुंदर रचना

    MY NEW POST ...सम्बोधन...

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  17. क्या दीवारें समझ पाती हैं
    टूटी अलगनी के
    दो छोरों का दर्द ?... दीवारें ही समझती हैं , अलग अलग छोर पर खड़े लोग नहीं

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  18. पता नहीं दर्द दीवारों को है कि अलगनी के टूटे हुए छोरों को ........ गहन अभिव्यक्ति !

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  19. अलगनी के माध्यम से बहुत कुछ कह दिया है आपने |बढ़िया प्रस्तुति |
    आशा

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  20. क्या दीवारें समझ पाती हैं
    टूटी अलगनी के
    दो छोरों का दर्द ?

    Gahari Abhivykti....

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  21. जीवन के आख़िरी पहर में
    बंट गयीं दीवारें
    अपनों के बीच,
    टूटी अलगनी के दो छोर
    ताकते हैं एक दूसरे को
    नम आँखों से.

    कैलाश जी सही भाव इस कविता में हैं और यह बहुत आश्चर्यजनक भी है कि इतने साल साथ चलते हुए भी मजबूर हो जाते है अलग होने के लिये.

    सुंदर रचना.

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  22. बहुत सुन्दर..
    बटवारे का दर्द असहनीय होता है...
    गहन प्रस्तुति...

    सादर.

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  23. बहुत बेहतरीन....
    मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।

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  24. कितनी सहजता से सत्य को कह देते हैं आप.. आपकी संवेदनशीलता को नमन..

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  25. संवेदनशील रचना
    बहुत सुन्दर

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  26. अद्भुत बिम्बों के सहारे अंतर्स्पर्शी रचना...
    सादर बधाई सर.

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  27. क्या दीवारें समझ पाती हैं
    टूटी अलगनी के
    दो छोरों का दर्द ?

    bhai wah kya khoob likha hai apne ...sadar badhai .

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  28. बहुत सुन्दर भाव लिए प्रतिबिम्बों से सजी रचना

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  29. जटिल प्रतीकों के प्रयोग के बावजूद कविता का कथ्य स्पष्ट रूप से दृश्यमान है।

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  30. आपकी पोस्ट आज की ब्लोगर्स मीट वीकली (३१) में शामिल की गई है/आप आइये और अपने विचारों से हमें अवगत करिए /आप इसी तरह लगन और मेहनत से हिंदी भाषा की सेवा करते रहें यही कामना है /आभार /

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  31. दीवारों को जोड़ने का काम करती अलगनी .... सुंदर बिम्ब और मन के दर्द को उभारती सुंदर रचना

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  32. गहन और गूढ़ अनुभूति लिए सुन्दर प्रस्तुति.. आप को शिव रात्रि पर हार्दिक बधाई..

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  33. क्या दीवारें समझ पाती हैं
    टूटी अलगनी के
    दो छोरों का दर्द ?
    बहुत मार्मिक रचना...!

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  34. क्या दीवारें समझ पाती हैं
    टूटी अलगनी के
    दो छोरों का दर्द ?...

    ऊंची दीवारों से दर्द कहाँ नज़र आता है ... मार्मिक लिखा है बहुत ही ...

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  35. महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाये.

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  36. बहुत बढ़िया विषय और सुन्दर प्रतीकों के माध्यम से दर्द को व्यक्त किया आभार

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  37. गहन अभिव्यक्ति....आभार

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  38. बहुत गहरे भाव .. बेहद संजीदा लेखन

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  39. बहुत सुन्दर सृजन , बधाई.

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  40. दीवारें तो फिर भी समझ जाएँगी,लेकिन जो मानव-निर्मित दिवार है वह कब की गिर गई...कोई गुंजाईश ही नहीं बची,छोरों के मिलने की !

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  41. ek bahut hi samvedan sheel marm ko kitne achche saral shabdon me algani ke maadhyam se aapne apni rachna me kah diya....vaah laajabab

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  42. क्या बात है कैलाश जी.
    अलगनी को फिर तो मिलगनी
    कहना चाहिए,जिसपर नाजायज बोझ
    डालकर हम तोड़ देते हैं.दीवारों का भी क्या
    कसूर है.

    सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार जी.

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