पंचम अध्याय
(कर्मसन्यास-योग - ५.२१-२९)
अनासक्त जब बाह्य वस्तु में,
तब आत्मिक आनन्द है होता.
अक्षय सुख वह प्राप्त है करता,
स्वयं ब्रह्म में युक्त जो होता. (२१)
स्पर्शजनित भोग दुःख कर्ता,
आदि अंत उनका है होता.
हे कौन्तेय! विवेकी जन है
उनमें रमण कभी न करता. (२२)
काम क्रोध वेगों की क्षमता
वश में मृत्यु पूर्व जो रखता.
वह जन ही सच्चा योगी है,
जग में सदा सुखी वह रहता. (२३)
सुख, आनन्द अंतरात्मा में ही,
अन्दर ही है ज्योति जलाता.
ब्रह्मलीन होकर वह योगी
ब्रह्म भाव को है वह पाता. (२४)
संशय, पाप क्षीण हों जिसके,
चित्त संयमित, जनहित में रहता.
ऐसा सम्यग्दर्शी ऋषि जन
परम मोक्ष को प्राप्त है करता. (२५)
काम क्रोध से जो विमुक्त है,
जीत चित्त आत्म का ज्ञाता.
मरने पर या जीवित रहते,
ब्रह्म निर्वाण यती वह पाता. (२६)
रोक स्पर्शादी बाह्य विषयों को,
स्थिर दृष्टि बीच भवों के.
श्वास प्रश्वास नासिका अन्दर
उन दोनों को सम करके. (२७)
इन्द्रिय, मन और बुद्धि को
पूर्णतः वश में जो करता.
इच्छा, भय व क्रोधविहीना
मुक्त मोक्ष इक्षुक मुनि रहता. (२८)
परमेश्वर समस्त लोकों का,
यज्ञ और तप का मैं भोक्ता.
मैं ही मित्र सभी प्राणी का,
जो जाने वह शान्ति है पाता. (२९)
**पांचवां अध्याय समाप्त**
......क्रमशः
कैलाश शर्मा