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Wednesday, September 26, 2012

मत नफ़रत की राह सुझाओ

मत नफ़रत की राह सुझाओ,
तुम्हें मिलाने दिल भेजा है.

मंदिर मस्ज़िद की दीवारें 
क्यों इंसां के बीच खड़ी हो.
एक तत्व है सब प्राणी में,
राम रहीम में अंतर क्यों हो.

रंग एक है लाल लहू का,
सुख दुख एक बराबर सहते.
घर जलता है जब भी कोई,  
आंसू सभी एक से बहते.

मैं कुरान की पढूं आयतें,
तुम गीता संदेश सुनाओ.
पहुंचेगी आवाज़ वहीं पर 
ईसू अल्लाह राम बुलाओ.

मंदिर की घंटी की धुन में 
स्वर अज़ान के जो मिल जायें.
भूल जायेंगे हम सब झगड़े
सच्चे दिल से गर ये सुन पायें.

सिर्फ़ प्रेम की राह सत्य है,
न अलगाव दिलों में लाओ.
दीवारों से मुक्त बनो तुम,
कण कण में दर्शन कर पाओ.

कैलाश शर्मा 

Monday, September 24, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (३४वीं कड़ी)


       आठवां अध्याय 
(अक्षरब्रह्म-योग-८.२०-२८


लेकिन इस अव्यक्त परे भी
अव्यक्त सनातन भाव है होता.
प्राणी समस्त नष्ट होने पर,
लेकिन अनादि है नष्ट न होता.  (८.२०)

अव्यक्त ही अक्षर कहलाता, 
उसे परम गति भी हैं कहते.
वह मेरा ही परम धाम है,
पाकर जिसे न पुनः लौटते.  (८.२१)

हे अर्जुन! वह परम पुरुष है,
प्राप्त अनन्य भक्ति से होता.
जीव सभी उसमें स्थित हैं,
उससे जगत व्याप्त है होता.  (८.२२)

हे अर्जुन! वह समय बताता,
जब योगी हैं संसार से जाते.
कुछ वापिस है नहीं लौटते,
लेकिन कुछ वापिस आ जाते.  (८.२३)

अग्नि,ज्योति,शुक्लपक्ष,दिन, 
छह मास उत्तरायण के होते.
जो इस समय संसार से जाते,
ब्रह्मज्ञ प्राप्त ब्रह्म को होते.  (८.२४)

मृत्यु धूम, रात्रि, कृष्णपक्ष व
दक्षिणायन में जो योगी पाते.
भोग स्वर्ग में कर्मों का फल, 
वे  फिर से हैं पृथ्वी पर आते.  (८.२५)

शुक्ल और कृष्ण दो रस्ते 
जग में शाश्वत माने जाते.
शुक्ल गति मोक्ष दायक है 
कृष्ण गति से वापिस आते.  (८.२६)

भ्रमित कभी न होता योगी,
ये दोनों ही मार्ग जान कर. 
अतः सदा तुम हे अर्जुन!
रहना युक्तयोग है हो कर.  (८.२७)

वेद, यज्ञ, तप, दान द्वारा 
पुण्य शास्त्र में जो बतलाये.
ऊपर उठ करके इन सब से 
योगी परम पद को है पाये.  (८.२८)

               ......क्रमशः

**आठवां अध्याय समाप्त**

कैलाश शर्मा 

Friday, September 21, 2012

मन कहता सब कुछ छोड़ चलें

मन कहता सब कुछ छोड़ चलें,
अनजान डगर पर जा निकलें.

रिश्तों की जितनी गांठें हैं 
उनको सुलझाना रहने दें.
कंधों पर क्यों है बोझ रखें,
उसको कुछ हल्का होने दें.

मोड़ मिले आगे या पथरीली राहें,
इस भूलभुलैया से आगे निकलें.

जो चाहा, वह पाया कब है,
चाहों को राह न मिल पायी.
ख़्वाबों में चाँद उगा लेकिन
पर नहीं चांदनी खिल पायी.

विस्मृत कर आकांक्षाएं सब की,
कुछ पल तो आज स्वयं को रखलें.

अश्कों को जमा बर्फ़ करदें,
नयनों को कुछ आराम मिले.
स्मृतियां सब छोड़ चलें पीछे 
होठों को कुछ मुस्कान मिले.

विस्मृत कर, क्या है खोया पाया,
जो कुछ मुट्ठी में वो लेकर निकलें.

कैलाश शर्मा 

Tuesday, September 18, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (३३वीं कड़ी)

       आठवां अध्याय 
(अक्षरब्रह्म-योग-८.१०-१९



वीतराग मुनि जिसमें प्रवेश को
ब्रह्मचर्य व्रत पालन हैं करते.
मैं वह तत्व संक्षेप में कहता,
वेदान्ती अक्षर ब्रह्म हैं कहते.  (८.११)

इन्द्रिय द्वारों का संयम कर, 
मन निरुद्ध ह्रदय में करके.
भ्रकुटि बीच प्राण स्थिर कर,
योग भाव आश्रय लेकर के.  (८.१२)

भजते एकाक्षर   ब्रह्म को,
मेरा सतत स्मरण करता.
ऐसे शरीर त्यागता जो जन,
परमगति को प्राप्त है करता.  (८.१३)

केवल मुझमें चित्त लगा कर
प्रतिदिन सतत स्मरण करता.
उस एकाग्र चित्त योगी को 
अर्जुन सदा सुलभ मैं रहता.  (८.१४)

मुझे प्राप्त कर के महात्मा
पुनर्जन्म का कष्ट न सहते.
वे साधक जन पूर्ण रूप से
सिद्धि रूप मोक्ष हैं लभते.  (८.१५)

ब्रह्म लोक तक सब लोकों में 
पुनर्जन्म अवश्य है होता.
किन्तु मुझे पा लेने पर अर्जुन,
पुनर्जन्म है न फिर होता.  (८.१६)

सहस्त्र युगों का एक रात्रि दिन
ब्रह्मा समय चक्र में होते.
जो इस बात का ज्ञान हैं रखते,
वे हैं इसका तत्व समझते.  (८.१७)

ब्रह्मा के दिन के आने पर 
अव्यक्त से प्राणी पैदा होते.
प्रलय रूप रात्रि आने पर 
फिर विलीन उसमें ही होते.  (८.१८)

वे प्राणी फिर जन्म हैं लेते,
ब्रह्मा का दिन फिर आने पर.
और विलीन हैं वे हो जाते,
रात्रि काल के फिर आने पर.  (८.१९)

             .........क्रमशः

कैलाश शर्मा 

Monday, September 10, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (३२वीं कड़ी)


       आठवां अध्याय 
(अक्षरब्रह्म-योग-८.१-१०

अर्जुन 


क्या है ब्रह्म कहो पुरुषोत्तम,
अध्यात्म, कर्म किसे हैं कहते?
किसे कहा अधिभूत गया है,
और किसे अधिदैव हैं कहते?  (८.१)

हे मधुसूदन! इस शरीर में
कहो कौन अधियज्ञ है होता?
तुम्हें मृत्युकाल है कैसे जाने  
जिसका मन वश में है होता?  (८.२)

श्री भगवान 

अक्षर तत्व ही परम ब्रह्म है, 
अध्यात्म स्वभाव को कहते.
भाव प्राणियों में पैदा करती,
उस सृष्टि को कर्म हैं कहते.  (८.३)

नश्वर भाव अधिभूत है होता,
विराट पुरुष अधिदैवत कहते.
इस देह में स्थित मैं ही अर्जुन,
मुझको ही अधियज्ञ हैं कहते.  (८.४)

अंत काल स्मरण मुझे कर,
तज शरीर प्रयाण है करता.
इसमें संशय नहीं है अर्जुन,
ह मेरे स्वरुप को लभता.  (८.५)

अंत काल त्यागता जब तन
जो जो भाव स्मरण करता.
उसी भाव से भावित हो कर,
वही भाव प्राप्त वह करता.  (८.६)

सतत स्मरण करके मेरा 
जाओ युद्ध करो तुम अर्जुन.
निश्चय ही पाओगे मुझको,
मन बुद्धि को करके अर्पण.  (८.७)

अभ्यास और योग से अर्जुन
चित्त न विचलित होने पाता.
निश्चय वह प्राणी हे अर्जुन!
दिव्य परम पुरुष को है पाता.  (८.८)

सर्वद्रष्टा, प्राचीन, नियंता,
परम सूक्ष्म सबका धारक है.
अचिन्त्यरूप, आदित्यवर्ण,
तप से परे ब्रह्म चिन्तक है.  (८.९)

भक्ति युक्त, योग शक्ति  से,
मृत्यु समय जो ध्यान है करता.
भ्रकुटि बीच प्राण स्थिर कर,
परम ब्रह्म को प्राप्त है करता.  (८.१०)

              .........क्रमशः

कैलाश शर्मा 

Wednesday, September 05, 2012

हाइकु - जीवन

   (१)
रात का दर्द 
समझा है किसने
देखी है ओस?

   (२)
दिल का दर्द
दबाया था बहुत
छलकी आँखें.

   (३)
जीवन राह   
बहुत है कठिन 
जीना फिर भी.

   (४)
जाता है राही
वहीं रहती राह
सहती दर्द.

   (५)
न जाने कब
फिसली थी उंगली 
यादें ही बची.

   (६)
खून के रिश्ते
बन गये हैं पानी
बहे आँखों से.

   (७)
खोई ज़िंदगी
ढूँढता अँधेरे में
शायद मिले.

   (८)
थके कदम 
करते हैं तलाश
आख़िरी मोड़.

कैलाश शर्मा 

Monday, September 03, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (३१वीं-कड़ी)


        सातवाँ अध्याय 
(ज्ञानविज्ञान-योग-७.२४-३०


अल्प बुद्धि वाले जो जन हैं 
अव्यक्त को व्यक्त मानते.
अपनी अल्प बुद्धि के कारण
मेरा अव्यय रूप न जानते.  (२४)

प्रगट नहीं होता मैं सबको
ढका योगमाया से रहता.
मेरे अविनाशी स्वरुप को
मूढ़ लोक है नहीं जानता.  (२५)

भूत, भविष्य, वर्तमान के
सभी प्राणियों को मैं जानता.
लेकिन अर्जुन इतना जानो
मुझे कोई भी नहीं जानता.  (२६)

इच्छा और द्वेष से पैदा 
द्वंद्वों से मोहित होकर के.
हे भारत! हो जाते मोहित 
प्राणी हैं समस्त इस जग के.  (२७)

पुण्य कर्म वाली आत्मायें,
पाप नष्ट हो गये हैं जिनके.
मुक्त द्वंद्व मोह से होकर  
मुझे अनन्यभाव से भजते.  (२८)

जरा, मृत्यु से मुक्ति प्राप्त को
मेरा आश्रय ले यत्न हैं करते.
परमब्रह्म, आध्यात्म, कर्म को 
वह जन अच्छी तरह समझते.  (२९)

लौकिक, दैविक, यज्ञ सभी में
जो जन मेरा रूप जानते.
करते जब प्रयाण इस जग से,
मेरे भक्त हैं मुझे जानते.  (३०)

           .........क्रमशः

**सातवाँ अध्याय समाप्त**


कैलाश शर्मा