दसवां अध्याय
(विभूति-योग -१०.८-१८)
मैं सम्पूर्ण सृष्टि का कारण
मुझसे ही सब कुछ है चलता.
ऐसा लेकर भाव है ज्ञानी
प्रेम पूर्वक मुझको है भजता. (१०.८)
मुझमें मन को स्थिर करके
जीवन मुझे हैं अर्पण करते.
मेरा ज्ञान परस्पर दे कर
वे मेरे वर्णन में ही हैं रमते. (१०.९)
है आसक्त चित्त मुझमें ही
मुझ को प्रेम पूर्वक भजते.
देता उनको बुद्धि योग मैं,
जिससे प्राप्त मुझे वे करते. (१०.१०)
करने को मैं अनुग्रह उन पर
आत्म भाव में स्थिर रह कर.
अज्ञान अँधेरा नष्ट हूँ करता
ज्ञान रूप का दीप जला कर. (१०.११)
अर्जुन
आप परब्रह्म, परम धाम हैं,
आप सनातन, परम पवित्र हैं.
दिव्य, अजन्मा, आदि देव हैं,
कृष्ण आप सर्वत्र व्याप्त हैं. (१०.१२)
सभी ऋषि व देवर्षि नारद
व्यास, असित, देवल हैं कहते.
वही तत्व आपका माधव
आप स्वयं भी मुझको कहते. (१०.१३)
हे केशव! जो आप कह रहे,
उस सबको हम सत्य मानते.
किन्तु आपके इस वैभव को
देव या दानव नहीं जानते. (१०.१४)
प्राणिजगत के सृजक व स्वामी,
देवाधिदेव, जगत के पालक.
अपने आप को अपने द्वारा
केवल स्वयं जानते हैं हे माधव! (१०.१५)
दिव्य विभूतियाँ हैं जो आपकी
केवल आप ही हैं कह सकते.
जिनसे लोक व्याप्त है करके
आप हैं इसमें स्थिर रहते. (१०.१६)
चिंतन काल में हे योगेश्वर!
कैसे पहचानूँ मैं आपको?
किन किन स्वरुप भावों में
ध्यान करूँ मैं सदा आपको? (१०.१७)
स्व विभूतियों और योग को
विस्तारपूर्व कहो तुम मुझ को.
तृप्ति नहीं होती है मन की
सुनकर इन अमृत वचनों को. (१०.१८)
कैलाश शर्मा