मत बांधो मुझको परिभाषा के बंधन में,
मुझको तो बस नारी बन कर जीने दो.
बचपन कब बीता तितली सा,
हर कदम कदम पर पहरा था.
प्रतिपल यह याद दिलाया था,
वह घर मेरा कब अपना था.
सभी उमंगें मन की मन में दबी रहीं,
कह न पायी मुझको मर्ज़ी से जीने दो.
गृहलक्ष्मी का थोथा नाम दिया,
अस्तित्व मगर खूंटी पर टांगा.
बिस्तर और रसोई तक जीवन,
भूली ज़ीवन से मैंने क्या मांगा.
मैंने विस्मृत कर दिया नाम भी अपना था,
अब कुछ पल
तो अपने में मुझको जीने दो.
ममता, पति
सेवा के बदले,
सीता
सावित्री कह बहलाया.
मैं रही
सोचती क्यों इनमें,
श्रवण व
राम न बन पाया.
निर्दोष
अहिल्या ही पत्थर बनने को शापित,
अब हर
पत्थर से दुर्गा की मूरत गढ़ने दो.
ममता,
प्यार, दया गुण को,
मैं कैसे
बिसराऊँ एक साथ.
जब बनते ये
शोषण कारण,
अंतस में
होता है आर्तनाद.
पीछे चलते
चलते कितने युग बीत गये,
अब साथ
साथ मुझको भी आगे बढ़ने दो.
रक्तबीज
दानव चहुँ ओर खड़े,
शंकर भी
मौन समाधि में बैठे.
मुझ को ही
बनना होगा दुर्गा,
जब रक्षक
ही भक्षक बन बैठे.
अबला बन
कर के सहे हैं मैंने ज़न्म कई,
अब सबला
बन कर के भी आगे जीने दो.
अस्तित्व
उठा कर कन्धों पर,
आगे मुझ को
है चलते जाना.
पग में
कितने भी घाव मिलें,
उनका ख़ुद मरहम
बन जाना.
अब किसी
राह पर पीछे मुड़ कर न देखूँगी,
मेरा
भविष्य अब मेरे हाथों में ही रहने दो.
कैलाश शर्मा