अपनी शुभ्र
चांदनी से प्रेमियों के मन को आह्लादित करता, चमकते तारों से घिरा उजला चाँद भी अपने
अंतस में कितना दर्द छुपाये रहता है इसका अहसास विजय कुमार सप्पत्ति जी ने अपने
प्रथम काव्य-संग्रह "उजले चाँद की बेचैनी" में बहुत शिद्दत से कराया है. प्रेम के
विभिन्न आयामों को अपने में समेटे भावों की सरिता कहीं निर्द्वंद उद्वेग में बहा
ले जाती है तो कहीं कोमल अहसासों के कलकल बहते स्वर मन को असीम शान्ति देते हैं,
और मन इस सरिता के तट को कभी अलविदा नहीं कहना चाहता.
कितनी भी कोशिश करें लेकिन यादों के गलियारों से बाहर निकलना कहाँ संभव होता
है और व्याकुल कर ही जाती है
‘उजले चाँद की बेचैनी
‘उजले चाँद की बेचैनी
अनजान तारों की जगमगाहट
बहती नदी का रुकना
और रुके हुए जीवन का बहना
...और फिर तुम्हारी याद.’
प्रेमिका
से मिलन का अहसास, अधूरे प्रेम की कशिश, अपनों से दूर होने का दर्द कविताओं में
गहराई से मुखर हुआ है. “सलवटों की सिहरन” स्मृतियों की व्यथा की चरम स्थिति का
अहसास कराती है जिसका कोई अंत नहीं है क्यों कि
‘मन पर पर पडी
‘मन पर पर पडी
सलवटें खोलने से नहीं
खुलती
धोने से नहीं धुलती.’
प्रेम के मौन अहसास को नाम
की तलाश में कविमन, “यादें” एक धरोहर के रूप में संभाले हुए है जिनमें झाँक कर
अपने दर्द को हरा कर लेता है आगे बढ़ने के लिए
‘कौन कहता है
कि
यादें पुरानी होती
हैं...!’
कवि ने अपनी रचनाओं में
प्रेम को एक असीम ऊंचाई दी है जो ज़िस्मानी हदों से बहुत ऊपर है. ‘नई भाषा’ जहां
प्यार की एक नयी उन्मुक्त भाषा को जन्म देती है
‘जिसमें प्रेम से भरी
मुक्तता और निकटता का ही स्थान था
और था स्थान उस मौन का
जिसमें
प्रेम से भरे शब्द मुखर हो
उठते थे.’,
वहीं उस भाषा को फिर से न
सुन पाने का दर्द और तलाश उस अहसास की “तेरा नाम क्या है प्रेम”.
“सर्द होठों का कफन”
बिछुड़ने के दर्द और फिर मिलन उसी मोड़ पर मौन आँखों से, अहसासों की एक उत्कृष्ट अभिव्यक्ति
है जो नम कर जाती है आँखों को
‘आज उम्र के अँधेरे उसी
मोड़ पर हमें ले आये हैं
जिस मोड़ पर हम अलग हुए थे
और
जिस पल में एक-दूजे को
हमने सर्द होठों का कफन
ओढ़ा था.’
लेकिन फिर भी कवि मन को एक
विश्वास है मिलन का “और सफर अभी भी जारी है” उस राह पर
‘कुछ मेरा यकीन, कुछ तेरी
चाहत
कुछ मेरी चाहत और तेरा
यकीन
हम सफर पर निकल पड़े...’
अपने अस्तित्व की तलाश में
भटकती नारी जो आज भी केवल एक देह बनकर रह गयी है के अंतर्मन की व्यथा को उकेरती
कविता “स्त्री : एक अपरिचिता” अंतस को गहराई तक उद्वेलित कर देती है.
‘तुम याद रख सके तो सिर्फ
एक पत्नी का रूप
और वो भी सिर्फ शरीर के
द्वारा ही
क्योंकि तुम्हारा मन मेरे तन
के आगे
किसी और रूप को जान ही
नहीं पाता है’
और अपने आप को जीवन भर एक
पुरुष की इच्छाओं को समर्पित करके भी पाती है अपने लिए एक अनजानापन, लेकिन सहती है
सब कुछ क्योंकि वह ‘एक स्त्री जो’ है. कविता “देह” और “जिस्म का नाम” नारी की
आंतरिक व्यथा की बहुत सशक्त अभिव्यक्ति हैं और एक मौन आह्वान इस व्यवस्था के खिलाफ़
खड़े होने का.
रोज़ी रोटी और अपने सपनों
की तलाश में शहर की भीड़ में खोया हुआ आदमी सब कुछ भौतिक सुविधाएँ प्राप्त करके भी
अपने आपको अकेला पाता है और एकांत पलों में माँ और माटी, जो बहुत पीछे छूट गए, की
यादें आँखों को नम कर जाती हैं. “माँ”, “तलाश” और “मां का बेटा” रचनायें इस दर्द
को बहुत गहराई से अभिव्यक्त करती हैं.
‘मेरी मां क्या मर गई...
मुझे लगा मेरा पूरा गांव
खाली हो गया
मेरा हर कोई मर गया
मैं ही मर गया...’
“ज़िंदगी, रिश्ते और बर्फ़” में रिश्तों में ज़मी बर्फ़ कवि मन को व्यथित कर देती है और अपना “सलीब” अपने कंधे पर उठाये कह उठता है
‘मैं देवता तो नहीं बनना
चाहता
पर कोई मेरी सलीब भी तो
देखे
कोई मेरे सलीब पर भी तो
रोये.’
बहुमुखी प्रतिभा के धनी
विजय जी का दार्शनिक और चिन्तक रूप “एक नज़्म : सूफी फकीरों के नाम” और "रूपांतरण” में बखूबी
उभरा है.
प्रेम एक शाश्वत और उदात्त
भाव है और जब यह स्थूल लौकिक धरातल से ऊपर उठ जाता है तो एक अतीन्द्रिय, अलौकिक
रूहानी धरातल पर पहुँच कर एक ऐसी विरह की कशिश पैदा करता है जहाँ मिलन और वियोग
एकाकार हो जाते हैं. इसी रूहानी प्रेम की उदात्त भावना और दर्द, काव्य-संग्रह के एक
एक शब्द में बहता हुआ अंतर्मन को भिगो जाता है, लेकिन फिर भी उन भावों से बाहर निकलने
की इच्छा नहीं होती. प्रेम की भावनाओं से सराबोर एक संग्रहणीय काव्य-संग्रह के लिए
विजय जी को हार्दिक बधाई.
पुस्तक मंगाने के लिए
संपर्क कर सकते हैं:
1) बोधि प्रकाशन,
F.77, Sector 9, Road No.11,
Karatarpura
Industrial Area,
Baais Godown,
Jaipur 302006
2) Shri
Vijay Kumar Sappatti,
Flat No.402, 5th Floor, Pramila Residency,
House No. 36-110/402, Defence Colony,
Sainikpuri
Post,
Sikandarabad-94
Mob:
+91-9849746500
E-mail:
vksappatti@gmail.com
वाह साब आपने इंसानी रिश्तों, प्रेम, विश्वास, ज़िन्दगी और संबंधो के बारे में जो प्रस्तुति की है और शब्दों से जो जादू उत्पन्न किया है वो बहुत ही अद्भुत है | आपकी रचनाओं को पढ़कर ह्रदय भाव विभोर हो उठा | आभार
ReplyDeleteकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
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बहुत उम्दा समीक्षा...
ReplyDeleterecent postकाव्यान्जलि: होली की हुडदंग ( भाग -२ )
भावों का सशक्त निरूपण..सुन्दर समीक्षा..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर समीक्षा
ReplyDeleteबेहतरीन समीक्षा .....
ReplyDeletemere comments nahi dikh rahe hai kailash ji .
ReplyDeleteआदरणीय Kailash Sharma जी ; शुक्रिया दिल से !
ReplyDeleteजैसे के मैंने पहले भी कहा की कभी कभी ऐसा होता है कि पुस्तक से ज्यादा अच्छी उसकी समीक्षा हो जाती है ..बस ऐसा ही फिर से हुआ है .. आपने हर कविता को इतने अच्छे से पढ़ा , उसे महसूस किया , उसके भावो को हर तौर पर जाना . मेरे लिए ये ही सबसे बड़ा उपहार है . आप से हमेशा सीखता आया हूँ और न ही सिर्फ कविता के क्षेत्र में बल्कि आप का ह्रुदयम ग्रुप [ HRUDAYAM के एक आधारस्तम्भ के रूप में भी आप का साथ मेरे लिए सराहनीय है .
आपका बहुत धन्यवाद !
मेरे प्रणाम स्वीकार करे.
आपका
विजय
आदरणीय Kailash Sharma जी ; शुक्रिया दिल से !
ReplyDeleteजैसे के मैंने पहले भी कहा की कभी कभी ऐसा होता है कि पुस्तक से ज्यादा अच्छी उसकी समीक्षा हो जाती है ..बस ऐसा ही फिर से हुआ है .. आपने हर कविता को इतने अच्छे से पढ़ा , उसे महसूस किया , उसके भावो को हर तौर पर जाना . मेरे लिए ये ही सबसे बड़ा उपहार है . आप से हमेशा सीखता आया हूँ और न ही सिर्फ कविता के क्षेत्र में बल्कि आप का ह्रुदयम ग्रुप [ HRUDAYAM के एक आधारस्तम्भ के रूप में भी आप का साथ मेरे लिए सराहनीय है .
आपका बहुत धन्यवाद !
मेरे प्रणाम स्वीकार करे.
आपका
विजय
बहुत बढिया समीक्षा की है आपने …………बधाई
ReplyDeleteयादों के सफ़र का बेहतरीन मेला जो कभी तनहा नहीं होने देते है।
ReplyDeletekisi pustk ki nishpaksh sameeksha pustak ko padhane ke liye mn ko andolit karti hai ......eske liye koti koti aabhar sharma ji .
ReplyDeleteवाह ... बहुत ही कमाल की समीक्षा है आपकी ...
ReplyDeleteमन में उत्सुकता जगाती है ...
बहुत ही बेहतरीन समीक्षा,आभार.
ReplyDeleteकविताओं के भाव-संसार का उत्कृष्ट वर्णन समीक्षा के माध्यम से। सुन्दर।
ReplyDeleteविस्तृत समीक्षा मन में पुस्तक पढ़ने की उत्सुकता जगाती है.
ReplyDeleteआभार.
ऐसी सुन्दर समीक्षा आपने उपलब्ध करायी इसके लिए आपका आभार!
ReplyDeleteकृतित्व और समालोचना दोनों प्रभावशाली हैं -
ReplyDelete‘तुम याद रख सके तो सिर्फ एक पत्नी का रूप
और वो भी सिर्फ शरीर के द्वारा ही
क्योंकि तुम्हारा मन मेरे तन के आगे
किसी और रूप को जान ही नहीं पाता है’
जबकि औरत जिस्म से परे एक आत्मा भी है शख्शियत भी है ....
‘मेरी मां क्या मर गई...
मुझे लगा मेरा पूरा गांव खाली हो गया
मेरा हर कोई मर गया
मैं ही मर गया...’
शीर्ष बिंदु है रचनाओं का
आभार...
ReplyDeleteआभार...
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी समीक्षा की है आपने ... विजय जी को बहुत - बहुत बधाई
ReplyDeleteआपका आभार