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Wednesday, August 28, 2013

आओ अब समय नहीं बाकी

चहुँ ओर गहन अँधियारा है,  
विश्वास सुबह का पर बाकी.
हो रहा अधर्म है आच्छादित,  
है स्थापन धर्म वचन बाकी.  

अब नहीं धर्म का राज्य यहाँ,
अपने स्वारथ में सभी व्यस्त.
दुर्योधन जाग उठा फ़िर से,
बेबस द्रोपदी फिर आज त्रस्त.

द्वापर में आये तुम कान्हा,
कलियुग में आना अब बाकी.

ब्रज में अब सूनापन पसरा,
गोपियाँ सुरक्षित नहीं कहीं.
हर जगह दु:शासन घूम रहे,
पर चीर बढ़ाने कृष्ण नहीं.

विश्वास न टूटे इनका गिरधर,
अब विश्वास दिलाना है बाकी.

अब भक्ति तेरी व्यवसाय हुई,
निष्काम कर्म को भूल गए.
प्रवचन करते हैं जो गीता पर,
वह घृणित कर्म में लिप्त हुए.

भर गया पाप का घड़ा बहुत,    
आओ अब समय नहीं बाकी.

**श्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनायें**


.....कैलाश शर्मा 

Saturday, August 24, 2013

पतंग और डोर

उड़ती मुक्त गगन में
लिये ख़्वाब छूने का
अनंत आकाश का छोर,
पर कहाँ है स्वतंत्र
बंधी है एक डोर          
है जिसका दूसरा छोर
किसी अन्य के हाथों में
उड़ान भरने से ऊपर पहुँचने तक,
उड़ पाती है उतना ही ऊँचा
जितनी पाती ढील डोर.

हो कर रह गया निर्भर
अस्तित्व केवल डोर पर,
जब भी कट जाती डोर
अनुभव होती आजादी
केवल कुछ पल की,
गिरने लगती
ज़मीन की ओर
और फंस जाती
किसी पेड़ या खंबे पर,
फड़फडाती पल पल
हवा के हर झोंके से
या पहुँच जाती
किसी अज़नबी हाथों में
उड़ने फ़िर
साथ नयी डोर.

उड़ती रही सदैव
पतंग की तरह
बंधी किसी न किसी
रिश्ते की डोर से.
काश होता उसका भी
स्वतंत्र अस्तित्व,
उड़ पाती बिन डोर
कर पाती पूरा सपना
छूने का आसमान
बिना किसी सहारे.

....कैलाश शर्मा

Friday, August 16, 2013

आँख में फ़िर से नमी छाई है

आज़ फ़िर काली घटा छाई है,
आँख में फ़िर से नमी छाई है.

है नहीं कोई सुने आवाज़ मेरी,
सिर्फ़ मैं और मेरी तनहाई है.

चलते रहे बोझ उठाए सर पर,
धूप में न छांव नज़र आई है.

सर्द अहसास हुए इस हद तक,
खून में घुल गयी सियाही है. 

अब न ज़लते चराग उमीदों के,
ज़ब से आंधी फ़लक पे छाई है.

आज फ़िर खुल के बहेंगे आंसू,
साथ देने बरसात चली आई है.

...कैलाश शर्मा 


Wednesday, August 07, 2013

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (५५वीं कड़ी)

                         
                                   मेरी प्रकाशित पुस्तक 'श्रीमद्भगवद्गीता (भाव पद्यानुवाद)' के कुछ अंश: 
               

       चौदहवां  अध्याय 
(गुणत्रयविभाग-योग-१४.१-८)

जो सब ज्ञानों में है उत्तम 
परम ज्ञान वह फिर बतलाता.
जिसे जानकर के मुनिजन है
परमसिद्धि को प्राप्त है करता.  (१४.१)

उसी ज्ञान का आश्रय लेकर 
मेरे स्वरुप को प्राप्त हैं होते.
न वे सृष्टि में जन्म हैं लेते 
और प्रलय में नष्ट न होते.  (१४.२)

महद् ब्रह्म  योनि है मेरी,
गर्भाधान मैं उसमें करता.
हे भारत! उसके ही द्वारा 
प्राणी सब उत्पन्न हूँ करता.  (१४.३)

सभी चराचर योनि में अर्जुन 
जो कुछ भी उत्पन्न है होता.
उनकी योनि महद् ब्रह्म है,
बीज प्रदायक पिता मैं होता.  (१४.४)

सत रज तम तीनों ही ये गुण
प्रकृति से उत्पन्न हुए हैं.
ये ही अव्यय आत्मा को अर्जुन
बाँधे शरीर से रखे हुए हैं.  (१४.५)

सत् गुण निर्मल होने के कारण 
दोष मुक्त, प्रकाशमय होता.
सुख व ज्ञान की आसक्ति से 
सत् गुण उनके साथ है रहता.  (१४.६)

राग स्वरुप रजोगुण होता
तृष्णा आसक्ति है पैदा करता.
कर्मों में आसक्ति जगाकर 
वह प्राणी को बंधन में रखता.  (१४.७)

अज्ञानजनित होता है तमोगुण,
मोह पाश में सबको है बांधता.
आलस्य, प्रमाद और निद्रा से 
हे भारत! उन्हें बाँध कर रखता.  (१४.८)

                     .....क्रमशः

.....कैलाश शर्मा