Pages

Monday, June 23, 2014

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (१८वां अध्याय)

                                  मेरी प्रकाशित पुस्तक 'श्रीमद्भगवद्गीता (भाव पद्यानुवाद)' के कुछ अंश: 

      अठारहवाँ अध्याय 
(मोक्षसन्यास-योग-१८.३६-४८ 

हे अर्जुन! मैं अब तुम को 
तीन प्रकार के सुख बतलाता.
जिसमें करके रमण है साधक
मुक्ति सभी दुःख से है पाता.  (१८.३६)

विष के समान शुरू में लगता 
किन्तु अंत अमृत सम होता.
उसे ही सात्विक सुख कहते हैं 
निर्मल बुद्धि से पैदा जो होता.  (१८.३७)

विषय और इन्द्रिय का सुख है
अमृत सम प्रारम्भ में होता.
पर परिणाम दुखों का कारण 
ऐसा सुख है राजसिक होता.  (१८.३८)

आरम्भ व अंत जिस सुख का 
आत्मा को मोहित है करता.
निद्रा आलस्य प्रमाद से पैदा 
वह तामस सुख जाना जाता.  (१८.३९)

पृथ्वी, आकाश व देव में 
नहीं कोई भी ऐसा प्राणी.
प्रकृतिजन्य तीन गुणों से 
मुक्त हो जिनसे वह प्राणी.  (१८.४०)

कर्म ब्राह्मण व क्षत्रिय के 
और वैश्य शूद्रों के अर्जुन.
अलग अलग से गये हैं बांटे
स्वभावजनित गुणों के कारण.  (१८.४१)

शुचिता और इन्द्रियों पर संयम 
शांत चित्त तप क्षमा सरलता.
स्वभावजनित कर्म ब्राह्मण के 
ज्ञान विज्ञान और आस्तिकता.  (१८.४२)

तेज शौर्य धैर्य चतुराई, 
नहीं युद्ध से पीछे हटना.
कर्म स्वभाव से क्षत्रिय के 
दान भाव ईश्वर में रखना.  (१८.४३)

कृषि वाणिज्य और पशुपालन 
है स्वाभाविक कर्म वैश्यों का.
परिचर्या व सेवा करना 
स्वभावाजनित कर्म शूद्रों का.  (१८.४४)

स्वाभाविक कर्मों को करके 
मनुज प्राप्त संसिद्धि करता.
मैं बतलाता हूँ कैसे वह जन 
स्वकर्मों से सिद्धि है लभता.  (१८.४५)

जिससे सब प्राणी की उत्पत्ति
और विश्व व्याप्त यह रहता.
करके स्वकर्मों से अर्चना उसकी 
मनुज सिद्धि को प्राप्त है करता.  (१८.४६)

अपना गुणहीन कर्म भी होता 
श्रेष्ठ कुशल कर्म अन्य जन के.
नहीं पाप लगता है उसको 
स्वभावाजनित कर्म को कर के.  (१८.४७)

जन्मजनित कर्म को अर्जुन, 
दोषयुक्त हो फिर भी न तजते.
जैसे धुएँ से व्याप्त है अग्नि,
सभी कर्म दोष व्याप्त हैं रहते.  (१८.४८)

             .....क्रमशः

...कैलाश शर्मा 

16 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (24-06-2014) को "कविता के पांव अतीत में होते हैं" (चर्चा मंच 1653) पर भी होगी!
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

    ReplyDelete
  2. सुंदर अनुवाद. आपने गीता के कठिन श्लोको को सरल और बोधगम्य बना दिया है.

    ReplyDelete
  3. अति सुन्दर ... गीता ही अंतिम सत्य है ... आपका आभार ...

    ReplyDelete
  4. बहुत ही सुन्दर जीवन के यथार्थ को बताती रचना सुख के कितने स्वरुप हैं किस का आनंद ले यह मानव विशेष पर निर्भर है सुन्दर प्रेषण `के` लिए आभार कैलाशजी

    ReplyDelete
  5. बहुत भावपूर्ण और प्रेरक अनुवाद प्रस्तुति !!

    ReplyDelete
  6. बहुत ही शानदार प्रस्तुति....
    बधाई मेरी

    नई पोस्ट
    पर भी पधारेँ।

    ReplyDelete
  7. विष के समान शुरू में लगता
    किन्तु अंत अमृत सम होता.
    उसे ही सात्विक सुख कहते हैं
    निर्मल बुद्धि से पैदा जो होता.

    ऐसा सात्विक भाव सदा सबकी बुद्धि में बना रहे..आभार !

    ReplyDelete
  8. गीता सार सहज शब्दों में...साधुवाद...

    ReplyDelete
  9. आत्मिक आनंद कराती सुन्दर अभिव्यक्ति … आभार

    ReplyDelete
  10. सुबह उठते ही एक सुन्दर प्रस्तुति पढने को मिली। गीता को इतना सरल सुगम और काव्यमय बनाकर आपने प्रस्तुत किया। आभार आपका। मनोहारी और ज्ञानवर्धक

    ReplyDelete
  11. आरम्भ व अंत जिस सुख का
    आत्मा को मोहित है करता.
    निद्रा आलस्य प्रमाद से पैदा
    वह तामस सुख जाना जाता. (१८.३९)

    पृथ्वी, आकाश व देव में
    नहीं कोई भी ऐसा प्राणी.
    प्रकृतिजन्य तीन गुणों से
    मुक्त हो जिनसे वह प्राणी.
    जय श्री राधे

    ReplyDelete