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Thursday, November 27, 2014

यादें

कल खरोंची उँगलियों से
दीवारों पर जमी यादों की परतें,
हो गयीं घायल उंगलियाँ
रिसने लगा खून
डूब गयीं यादें कुछ पल को
उँगलियों के दर्द के अहसास में।

कितनी गहरी हैं परतें यादों की,
आज फ़िर उभर आया अक्स
दीवारों पर यादों का,
नहीं कोई कब्रगाह
जहाँ दफ़्न कर सकें यादें,
शायद चाहतीं साथ आदमी का
दफ़्न होने को क़ब्र में।

...कैलाश शर्मा 

Thursday, November 13, 2014

शब्द

तैर रहे थे शब्द हवाओं में
प्रतीक्षा में संवरने को पंक्ति में,
भरा था लबालब अंतस भावों से
पाने को एक अभिव्यक्ति शब्दों में,
टिकी हुईं थी दो आँखें चहरे पर
इंतज़ार में सुनने को वो शब्द,
नहीं पकड़ पाये वे शब्द
नहीं गूंथ पाये उनको अभिव्यक्ति में
और खो गये मौन के जंगल में।

आज जीवन के सूनेपन में
फ़िर ताकते हैं वे शब्द
शिकायत भरी नज़रों से,
पूछते हैं कारण उस मौन का
नहीं उत्तर जिसका मेरे पास।

आज भी बेचैन हैं वे शब्द
अकेलेपन मैं मेरे मौन की तरह।

....कैलाश शर्मा 

Tuesday, November 04, 2014

सूनापन

सूना सूना मन लगता है,
कहीं न अपनापन लगता है।
घर के जिस कोने में झाँकूं,
वहां अज़ानापन लगता है।
 
क्यूँ खुशियों  के चहरे पर भी
अनजानी सी झिझक देखता।
हाथ बढाता जिधर प्यार से,
उधर ही खालीपन लगता है।
 
मायूसी बिखरी हर पथ पर,
मंज़िल है बेजान सी लगती।
क़दम नहीं इक पग भी बढ़ते,
थका थका सा मन लगता है।
 
बिस्तर तरसे है सलवट को,
नींद खडी है अंखियन द्वारे।
कसक रहे सपने पलकों में,
जीवन सिर्फ़ घुटन लगता है।
 
उजड़ा उजड़ा लगे है उपवन,
फूलों का रंग लगे है फीका।
 गुज़रा जीवन संघर्षों में,
अब सोने को मन करता है।
 
...कैलाश शर्मा