कल
खरोंची उँगलियों से
दीवारों पर जमी यादों की परतें,
हो गयीं घायल उंगलियाँ
रिसने लगा खून
डूब गयीं यादें कुछ पल को
उँगलियों के दर्द के अहसास में।
दीवारों पर जमी यादों की परतें,
हो गयीं घायल उंगलियाँ
रिसने लगा खून
डूब गयीं यादें कुछ पल को
उँगलियों के दर्द के अहसास में।
कितनी गहरी हैं परतें यादों की,
आज फ़िर उभर आया अक्स
दीवारों पर यादों का,
नहीं कोई कब्रगाह
जहाँ दफ़्न कर सकें यादें,
शायद चाहतीं साथ आदमी का
दफ़्न होने को क़ब्र में।
दीवारों पर यादों का,
नहीं कोई कब्रगाह
जहाँ दफ़्न कर सकें यादें,
शायद चाहतीं साथ आदमी का
दफ़्न होने को क़ब्र में।
...कैलाश शर्मा