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Wednesday, April 29, 2015

प्रकृति आक्रोश

करते जब खिलवाड़
अस्तित्व से प्रकृति की 
विकृत करते उसका रूप
विकास के नाम पर,
अंतस का आक्रोश
और आँखों के आंसू
बन जाते कभी सैलाब
कभी भूकंप
और बहा ले जाते
जो भी आता राह में.

समझो घुटन को
प्रकृति की चीत्कार को
दबी कंक्रीट के ढेर के नीचे
तरसती एक ताज़ा सांस को,
प्रकृति नहीं तुम्हारी दुश्मन
फटने लगती छाती दर्द से
देख कर दर्द अपनी संतान का.

संभलो, 
यदि संभल सको, 
अब भी.

....कैलाश शर्मा 

28 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 30 - 04 - 2015 को चर्चा मंच चर्चा - 1961 { मौसम ने करवट बदली } में पर दिया जाएगा
    धन्यवाद

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  2. भावपूर्ण प्रस्तुति ...संभलो, यदि संभल सको, अब भी.....

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  3. प्रकृति का प्रकोप या कुदरत का कहर चाहे जिस नाम से पुकारें आखिर इसका कारण तो हम ही हैं, हमें ही उसकी वेदना को समझना होगा... सार्थक सन्देश

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  4. सार्थक सन्देश !

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  5. sarthakta liye sashakt prastuti ....

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  6. सार्थक प्रस्तुति कैलाश जी |

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  7. बोध - गम्य - प्रस्तुति । सम्यक - सटीक , अन्तर्मन को छूती हुई - झकझोरती हुई , जीवन्त - रचना ।

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  8. प्रकृति वाकई पुकार रही है
    याचक आँखों से निहार रही है
    बार बार संकेत दे रही है
    क्या कोई है क्या कोई है
    ___________________
    प्रकृति का संकेत आपने सब तक भेजा आभार । एक और सुन्दर सार्थक रचना

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  9. कुदरत के क़हर पर सुंदर, सटीक और सार्थक रचना...प्रकृतिक आपदाएँ हमें किसी न किसी रूप में सचेत करती हैं कि हम संभलें और उसका दोहन बंद करें...

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  10. ये खिलवाड़ पता नहीं कितने सालों से कर रहा है इंसान और इतका कोई अंत भी दिखाई नहीं देता ...
    प्राकृति समय समय पर चेताती है पर कोई देखता नहीं इसके संकेत ... इश्वर रहम करे ...

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  11. सही कहा है आपने..प्रकृति कभी नहीं चाहती उसके पुत्रों का ऐसा विनाश..मानव को ही चेतना होगा..

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  12. सत्य को उजागर करती सुन्दर रचना

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  13. संभलना ही होगा मनुष्य को ।
    समय की पुकार है यह।

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  14. समझो घुटन को
    प्रकृति की चीत्कार को
    दबी कंक्रीट के ढेर के नीचे
    तरसती एक ताज़ा सांस को,
    प्रकृति नहीं तुम्हारी दुश्मन
    फटने लगती छाती दर्द से
    देख कर दर्द अपनी संतान का.

    संभलो,
    यदि संभल सको,
    अब भी.
    संभल जाएँ तो ही बेहतर ! लेकिन धीरे धीरे सब पुराने ढर्रे पर आ जाते हैं ! भूल जाते हैं बीती हुई विनाशलीला को !

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  15. काश मानव इतना समझदार हो होता ....

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  17. जो नियंत्रित कर सकते है उस ओर अवश्य प्रयास करने चाहिए . सुंदर प्रस्तुति.

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  18. सुन्दर व सार्थक प्रस्तुति..
    शुभकामनाएँ।
    मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।

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  19. प्रकृति के साथ इन्सान को हमेशा मँहगी पड़ी है।
    बहुत ही सार्थक प्रस्तुति।

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  20. प्रकृति के साथ छेड़छाड़ इंसान को बहुत मँहगी पड़ी है।
    बहुत ही सटीक प्रस्तुति शर्मा जी।

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  21. प्रकृति के साथ छेड़छाड़ इंसान को बहुत मँहगी पड़ी है।
    बहुत ही सटीक प्रस्तुति शर्मा जी।

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  22. सुन्दर और सामयिक प्रस्तुति

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