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Saturday, September 26, 2015

प्रकाश स्तम्भ

प्रकाश स्तम्भ
नहीं एक मंज़िल,
सिर्फ़ एक संबल
दिग्भ्रमित नौका को,
दिखाता केवल राह
लेना होता निर्णय
चलाना होता चप्पू 
स्वयं अपने हाथों से।


आसान है सौंप देना
नाव लहरों के सहारे
शायद पहुंचे किसी तट पर
न हो जो इच्छित मंज़िल
या डूब जाए बीच धारा में,
केवल प्रकाश स्तम्भ
या पतवार नौका में
कब है पहुंचाती 
इच्छित मंज़िल को,
करनी होती स्थिर 
दृष्टि प्रकाश स्तम्भ पर,
चलाने होते पतवार अपने हाथों से
रोकने को बहने से नाव 
लहरों के साथ।

....©कैलाश शर्मा

Sunday, September 13, 2015

इश्क़ को ज़ब से बहाने आ गए

इश्क़ को ज़ब से बहाने गए,
दर्द भी अब आज़माने गए।

दर्द की रफ़्तार कुछ धीमी हुई,
और भी गम आज़माने गए।

कौन कहता है अकेला हूँ यहाँ,
याद भी हैं साथ देने गए।

रात भर थे साथ में आंसू मिरे,
सामने तेरे छुपाने गए।

हाथ में जब हाथ था आने लगा,
बीच में फिर से ज़माने गए

            (अगज़ल/अभिव्यक्ति)


....©कैलाश शर्मा
 

Saturday, September 05, 2015

ऊधो, कहाँ गये मेरे श्याम

**श्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएं**   

ऊधो, कहाँ गये मेरे श्याम।
श्याम बिना कैसे मन लागे, अश्रु बहें अविराम।     
कछू न भावत है जग माहीं, बिन सूरत अभिराम।      
ज्ञान लगे नीरस इस मन को, ढूंढ रहा मन श्याम।       
अब तो आन मिलो हे कान्हा, सूना है बृज धाम।            
निकस न पायें प्राण हमारे, बिना दरस के श्याम।          
हुआ कठोर तुम्हारा मन क्यों, ऐसे कब थे श्याम।

...©कैलाश शर्मा