भटकता तलाश में शून्य की
घिर जाता और भी
अहम् के चक्रव्यूह में,
अपनी हर सोच
अपनी हर उपलब्धि
कर देती जटिल और भी
चक्रव्यूह के हर घेरे को।
घिर जाता और भी
अहम् के चक्रव्यूह में,
अपनी हर सोच
अपनी हर उपलब्धि
कर देती जटिल और भी
चक्रव्यूह के हर घेरे को।
अहम् खींच देता रेखा
बीच में अहम् और 'मैं' के,
अहम् की ऊँची दीवारों में
विस्मृत हो जाता 'मैं'
अंतस के किसी कोने में,
अहम् का चक्रव्यूह कर देता दूर
स्वयं अपने से और अपनों से
और डूबने लगता मन
असीम गह्वर में अतृप्त शून्य के।
बीच में अहम् और 'मैं' के,
अहम् की ऊँची दीवारों में
विस्मृत हो जाता 'मैं'
अंतस के किसी कोने में,
अहम् का चक्रव्यूह कर देता दूर
स्वयं अपने से और अपनों से
और डूबने लगता मन
असीम गह्वर में अतृप्त शून्य के।
तलाश शून्य की
जब होती प्रारंभ और अंत 'मैं' पर
होने लगती पहचान
स्वयं अपने से और अपनों से
और अनुभव एक अद्भुत शून्य का
जहाँ खो देता अस्तित्व अहम्
गहन शून्य 'मैं' के आह्लाद में।
होने लगती पहचान
स्वयं अपने से और अपनों से
और अनुभव एक अद्भुत शून्य का
जहाँ खो देता अस्तित्व अहम्
गहन शून्य 'मैं' के आह्लाद में।
...©कैलाश शर्मा