Pages

Wednesday, August 23, 2017

क्षणिकाएं

व्याकुल हैं भाव
उतरने को पन्नों पर,

लेकिन सील गये पन्ने
रात भर अश्कों से,
सियाही लिखे शब्दों की
बिखर जाती पन्नों पर
और बदरंग हो जाते पन्ने
गुज़री ज़िंदगी की तरह।।
      *****

क्यों उलझ जाती ज़िंदगी 
रिश्तों के जाल में,
होता कठिन सुलझाना
इस मकड़जाल को,
न ही तोड़ पाते 
न ही सुलझा पाते 
उलझे धागे,
कितना कठिन निकलना बाहर 
और जी पाना मुक्त बंधनों से।
     *****

काश पढ़ ही लेते
अपने दिल की क़िताब,
मिल जाते उत्तर
मुझसे पूछे
अनुत्तरित प्रश्नों के।


...©कैलाश शर्मा