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Friday, May 03, 2019

क्षणिकाएं


गीला कर गया
आँगन फिर से,
सह न पाया
बोझ अश्क़ों का,
बरस गया।
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बहुत भारी है
बोझ अनकहे शब्दों का,
ख्वाहिशों की लाश की तरह।
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एक लफ्ज़
जो खो गया था,
मिला आज
तेरे जाने के बाद।
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रोज जाता हूँ उस मोड़ पर
जहां हम बिछुड़े थे कभी
अपने अपने मौन के साथ,
लेकिन रोज टूट जाता स्वप्न
थामने से पहले तुम्हारा हाथ,
उफ़ ये स्वप्न भी नहीं होते पूरे
ख़्वाब की तरह.

...©कैलाश शर्मा