चारों ओर
पसरा है सन्नाटा
मौन है श्वासों का शोर भी,
उघाड़ कर
चाहता फेंक देना
चीख कर
चादर मौन की,
लेकिन
अंतस का सूनापन
खींच कर
फिर से ओढ़ लेता
चादर
सन्नाटे की।
पास आने
से झिझकता
सागर की
लहरों का शोर,
मौन होकर
गुज़र जाता दरवाज़े से
दबे
क़दमों से भीड़ का कोलाहल,
अनकहे
शब्दों का क्रंदन
आकुल है
अभिव्यक्त होने को,
क्यूँ आज
तक हैं चुभतीं
टूटे
ख़्वाब की किरचें अंतस में।
थप थपा
कर देखो कभी मौन का दरवाज़ा भी
दहल
जाएगा अंतस सुन कर शोर सन्नाटे का।
...©कैलाश शर्मा
बेहद हृदयस्पर्शी सृजन सर।
ReplyDeleteवाह बेहतरीन रचनाओं का संगम।एक से बढ़कर एक प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (23-09-2019) को "आलस में सब चूर" (चर्चा अंक- 3467) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार...
Deleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 22 सितंबर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआभार...
Deleteबेहतरीन रचना
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर सृजन आदरणीय
ReplyDeleteसादर
भावपूर्ण रचना..
ReplyDeleteक्यूँ आज तक हैं चुभतीं
ReplyDeleteटूटे ख़्वाब की किरचें अंतस में।... बहुत मुश्किल होता है ये समझना और फिर स्वयं को ढांढस बंधाना ... बेहद खूबसूरत रचना कैलाश जी
इस सन्नाटे का भी शोर भी कई बात कानों के परदे फाड़ देता है ...
ReplyDeleteबहुत ही लाजवाब भावपूर्ण रचना ...
बहुत सुंदर मृम स्पृशी अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteअनुपम।
लाजवाब प्रस्तुति। बहुत उम्दा लिखा है।
ReplyDeleteVery Nice Article
ReplyDeleteThanks For Sharing This
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आपके सन्नाटे को शोर मेरे कान के परदे चीर रही हैं । शानदार लेखन हेतु साधुवाद आदरणीय ।
ReplyDeleteहृदय की गहराई को छूती रचना. मौन.
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ReplyDeleteWhat inspired the author to write this poem, and what message do they hope to convey to customer service representatives and the broader audience through their words of gratitude? Visit us Telkom University
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