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Friday, February 25, 2011

सूनापन


खटखटाने को तरसता है दरवाज़ा,
नहीं आती कोई कदमों की आहट भी,
बैठे हुए कमरे में 
तक़ते हैं उदास नज़रों से
एक दूसरे को,
जानते हैं कोई नहीं आयेगा
फिर भी इंतज़ार है
किसी के आने की आहट का.

             (२)
इतने अश्क बहे आँखों से
कि स्वप्न भी 
सूख गये,
चलो किसी आँख से 
सपने उधार ले आयें.

Saturday, February 19, 2011

यमुना

(मथुरा में जन्म लेने के कारण बिहारी जी और यमुना जी से बहुत लगाव है. यमुना के बचपन से विभिन्न रूप देखे हैं. गत वर्ष मथुरा, ब्रन्दावन और गोकुल में यमुना के प्रदूषण और  दुर्दशा को देख कर मन बहुत व्यथित हुआ. मन की पीड़ा शब्दों में उतर गयी. पिछले सप्ताह मथुरा जाने का फिर अवसर मिला. इतनी योजनाएं बनने के बाद भी स्तिथि यथावत है. यद्यपि इस विषय पर मैंने अपनी रचना पिछले वर्ष पोस्ट की थी,जो मेरे ब्लॉग की दूसरी पोस्ट थी, लेकिन इस विषय और रचना से विशेष लगाव होने की वजह से, मैं  इसे दुबारा पोस्ट करने की गुस्ताखी कर रहा हूँ.)

यमुने कैसे  देखूँ तेरा  यह वैधव्य  रूप ,
मैंने तुमको प्रिय आलिंगन में देखा है।


है कहाँ  गया कान्हा  तेरा यौवन साथी,
हो गये मौन क्यों आज मधुर बंसी के स्वर।
खो गयी कहाँ पर राधा की वह मुक्त हंसी,
लुट गये कहाँ पर सखियों के नूपुर के स्वर।


कैसे यमुने तेरे  नयनों मैं जल देखूँ,
मैंने इनमें खुशियों का यौवन देखा है।


होगयी रश्मि की स्वर्णिम साडी कलुष आज,
होगये नक्षत्रों के आभूषण प्रभा हीन 
ढलते सूरज ने मांग भरी जो सिंदूरी,
बढ़ता आता अँधियारा करने उसे ली ।


यमुने कैसे  देखूँ तेरा  सूना आँचल ,
मैंने इसमें खुशियों का नर्तन देखा है।


दधि और दूध की जहाँ बहा करती नदियाँ,
अब वहां अभावों का मुख पर पीलापन है।
क्या साथ ले गये बचपन की क्रीड़ायें तुम,
या राधा की कान्हा से अब कुछ अनबन है।


आजाओ कान्हा एक बार फिर से तट पर,
मैं भी  देखूँ वह  जो ग्वालों  ने देखा है।


इस चीरघाट पर अब भी चीर टंगे तरु पर,
पर नहीं कृष्ण जो सखियों का फिर तन ढक दे।
सूनी  आँखों से दूषित  यमुना राह तके ,
विष मुक्त किया था,जिसने कलि का वध करके।


कैसे निष्ठुर हो सकते हो तुम कृष्ण आज ,
जब  राधा को  मनुहारें  करते देखा है .

Sunday, February 13, 2011

वहाँ क्या प्यार नहीं है ?

लेकर गुलाब लाल खड़े इंतज़ार में,
गहराई प्यार की है छुपी स्वर्णहार में,
प्रियतम की बांह और संगीत है मधुर,
मस्ती में नाचते हैं, उत्सव है प्यार का.


               है गर नहीं गुलाब  तो क्या  प्यार ही नहीं,
               अभिव्यक्त कर सके न,तो क्या प्यार ही नहीं,
               इज़हार ही से आंकते गहराई प्यार की,
               कैसे कहूँ मैं  इसको  त्यौहार प्यार का.


पत्थर को तोड़ती हुई मायूस है नज़र,
रोता है भूखा बचपन धूप में उधर,
कैसे जलेगा शाम को चूल्हा यह फिक्र है,
लायेगा वह कहाँ से उपहार प्यार का.


               है प्यार सिर्फ़ नाम का, पैसे का खेल है,
               कहने को शब्द भर हैं, न दिलों का मेल है,
               जो ढो रहे हैं ज़िन्दगी का भार सिरों पर,
               कैसे कहें कि उनको नहीं ज्ञान प्यार का.

Thursday, February 03, 2011

कहाँ पर वसंत है ?

          सरसों के खिले फूल,
          ओढ़े  पीला  दुकूल,
हरियाली नाच रही, आया वसंत है.


          प्रियतम हैं आन मिलें,
          मन के सब द्वार खुलें, 
तनमन में नाच रहा जैसे अनंग है.


          हिरणी सा मन चंचल,
          गिरता सिरसे  आँचल,
बार बार तके द्वार, आया न कन्त है.


          पढती बार बार पाती,
          क्यों न उन्हें याद आती,
क्यों मेरी  राहें  ही, सूनी  अनंत है.


          सरसों का पीलापन,
          चहरे पर आया छन, 
होगये कपोल पीत, कैसा वसंत है.


          कोयल की मधुर कूक,
          उर में बढ़ जाती हूक,
पतझड़ है चहुँ ओर, कहाँ पर वसंत है ?