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Thursday, June 23, 2011

वैधव्य

                    (On International Widows Day)

छूटा नहीं था 
रंग अभी मेंहदी का
पर टूट गयीं
चूड़ी लाल हाथों की
और पुछ गया
सिन्दूर माथे का.

नहीं देखा किसी ने 
मेरे अरमानों का ज़लना,
मेरे सपनों का बिखरना,
मेरा दर्द
बीच राह में लुट जाने का,
और थोप दिया 
सारा दोष मेरे ऊपर
लगा कर एक दाग 
मेरे माथे पर
शापित, दुर्भागी
और कलंकनी होने का.

क्या देखा है
किसी पुरुष को
विधुर होने पर
अभिशापित होने का
दाग लगते हुए,
अकेलेपन का बोझ ढ़ोते
या समाज से
बहिष्कृत होते हुए.

फिर क्यों?
फिर क्यों औरत को
विधवा होने पर
बना दिया जाता है
अभागी,
अनपेक्षित
और शापित,
और छोड़ दिया जाता है
बनारस या बृन्दावन की 
गलियों में,
बैठने को कोठे पर
या फ़ैलाने को हाथ
गैरों के सामने
माँगने को भीख.

क्यों जलना होता है
हमेशा औरत को ही,
कभी सती बनकर,
और कभी तिल तिल कर
तिरष्कृत और अकेले
वैधव्य का बोझ ढ़ोते.
क्यों कर दिया जाता है
हमेशा मुझे ही शापित?

33 comments:

  1. क्या देखा है
    किसी पुरुष को
    विधुर होने पर
    अभिशापित होने का
    दाग लगते हुए,
    अकेलेपन का बोझ ढ़ोते
    या समाज से
    बहिष्कृत होते हुए.
    प्रत्‍येक शब्‍द एक सच कहता हुआ ...।

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  2. यक्ष प्रश्न है ……………मगर अब इस समाज को बदलना होगा……………मार्मिक अभिव्यक्ति।

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  3. स्त्री विमर्श को दिशा देती कविता... बहुत सुन्दर

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  4. एक पुरानी मगर बेहद सामयिक कालजई कृति बड़े भाई

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  5. अधिकतर मामले तो होते हैं
    सम्पत्ति हडपने के --

    वही बहू वही भाभी वही चाची
    सौभाग्य शालिनी होती है
    और जब बेटा भैया या चाचा
    छोड़ के जाता है चल तो वही
    बन जाती है अभागिन |

    क्या वो माँ जिसका बेटा गया या वो,
    जिसका भाई गया सौभाग्यशाली बने रहते हैं?
    यदि नहीं तो बहू के समकक्षी हुए सभी
    और यदि हाँ तो ये सौभाग्य--
    बहू की धन-संपत्ति ही है और कुछ नहीं|

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  6. यह बात आज तक मैं भी नहीं समझ सकी कि उसका अकेलापन शाप क्यूँ है , और सुहागन मरना उसके हिस्से क्यूँ ? मृत्यु तो किसी को भी आती है.... साथवाले का दर्द , दूसरे इसे पाप क्यूँ बना देते हैं !

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  7. मार्मिक अभिव्‍यक्ति .. सही प्रश्‍न है !!

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  8. क्यों जलना होता है
    हमेशा औरत को ही,
    कभी सती बनकर,
    और कभी तिल तिल कर
    तिरष्कृत और अकेले
    वैधव्य का बोझ ढ़ोते.
    क्यों कर दिया जाता है
    हमेशा मुझे ही शापित?
    बहुत दर्दिले शब्दों में वैधव्य को चित्रित किया है आभार.....

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  9. बेहद मार्मिक लिखा है सर!

    सादर

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  10. सुन्दर भावपूर्ण मार्मिक प्रस्तुति.सही सोच से इस दिशा में भी परिवर्तन आयेगा ही.

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  11. बहुत सुन्दर.......हैट्स ऑफ टू यू कैलाश जी इस पोस्ट के लिए........तस्वीर पोस्ट में चार चाँद लगा रही है .......सुभानाल्लाह|

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  12. बेहद भावविभोर कर देने वाली पंक्तियाँ समाज के चेहरे को एक बार फिर आइना दिखाती कविता, और अनुत्तरित प्रश्न उठाती भी बधाई कैलाश जी

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  13. vaidhavy ek abhishap achchha likha hai

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  14. जलती हुई सच्चाई को समेटे मार्मिक कविता !
    आभार !

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  15. मिलन -विछोह तो सास्वत है ,वैधव्य तो समाज की विकृतियों ने ,
    आततायियों ने ,रुढ़िवादियों ने तथाकथित ठेकेदारों ने अपनी इच्छानुसार ,सुविधानुसार सृजित किया है ,कितना जघन्य कृत्य , ओफ़.../ निंदनीय .
    मार्मिक काव्य- सृजन को वंदन .../

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  16. क्यों जलना होता है
    हमेशा औरत को ही,
    कभी सती बनकर,
    और कभी तिल तिल कर
    तिरष्कृत और अकेले
    वैधव्य का बोझ ढ़ोते.
    क्यों कर दिया जाता है
    हमेशा मुझे ही शापित?
    Sach! Ye hamare samaj kee sab se badee trasadee hai!
    Beahad achhee rachana!

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  17. aaj samaj me nari ke halaat itna badal jane par bhi sthiti vahi ki vahi hai....bharat ek purush pradhaan desh hai jaha nari ke prati soch ka dayra badhne me sadiyo lag jayengi.

    bahut marmsparshi rachna.

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  18. सच में दुर्भाग्यपूर्ण है, समानता हो।

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  19. प्रश्नों के उत्तर मांगती हुई सारगर्भित पोस्ट , आभार

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  20. मार्मिक अभिव्यक्ति.... प्रश्न उठाती रचना....

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  21. तस्वीर के साथ साथ बहुत सुन्दर और मार्मिक रचना लिखा है आपने! आपकी लेखनी को सलाम!
    मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
    http://seawave-babli.blogspot.com/

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  22. जिससे पुरुष के अहम् की संतुष्टि होती रहे। उसे हमेशा लगे कि ये काले और सफेद वस्‍त्र पहने हुए महिला पर हम कुदृष्टि डालने के हकदार हैं। हमने अपने आनन्‍द के लिए स्‍त्री नामक जीव को अपनी मुठ्ठी में कैद करके रखा है। लेकिन फिर भी पुरुष ही उसके लिए कविता लिखता है। कभी अपनी मानसिकता नहीं बताता कि मेरे मन में क्‍या चल रहा होता है जब एक सफेद वस्‍त्र में लिपटी महिला को देखता हूँ।

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  23. बहुत मार्मिक रचना है आपकी...वैधव्य पर श्री लोकेश 'साहिल' का एक दोहा देखिये

    बिछुए कंगन चूड़ियाँ ,महंदी वाले हाथ
    अम्मा की सजधज गयी, बाबूजी के साथ

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  24. बहुत बहुत सही कहा आपने....यही तो विडंबना है....

    सार्थक और अत्यंत प्रभावशाली ढंग से विषय को रचना में ढाला है आपने...

    साधुवाद !!!!

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  25. जो मैं कहना चाह रहा था, नीरज जी पहले ही कह चुके हैं

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  26. क्या देखा है
    किसी पुरुष को
    विधुर होने पर
    अभिशापित होने का
    दाग लगते हुए,
    अकेलेपन का बोझ ढ़ोते
    या समाज से
    बहिष्कृत होते हुए.

    Arthpoorn prashn uthati rachna..... Bahut Sunder

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  27. सार्थक रचना

    सार्थक प्रश्न

    ......

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  28. अनादि काल से उठ रहे इस प्रश्न को मार्मिक कविता में ढाल कर विचारणीय - चिंतन करने को बाध्य कर दिया है.अहम्-ब्रम्हास्मि का ध्वज फहराती पुरुष प्रधान सामाजिक व्यवस्था क्या चिंतन कर पायेगी ?

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  29. बीना शर्माJune 25, 2011 at 8:56 AM

    यह प्रश्न सदियों से नारी मन को उद्वेलित करता रहा है पर कोइ उत्तर नहीं सब और चुप्पी है कोइ कुछ नहीं बोलता मेरी एक मित्र ने किसी सन्दर्भ में मुझसे कहा था देख बहिन एक आदमी ही तो चला जाता है पर पूरा जगत हमारा शरीर हमारी इच्छाएं तो नहीं बदलतीं फिर सारी अपेक्षाएं सारे दुःख सारी आलोचनाएं सिर्फ और सिर्फ ह्मारे हिस्से ही क्यों आती है

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  30. समाज में यह अन्याय जाने कब से चला आ रहा है... औरत अब जाग रही है.. अपने अधिकारों के प्रति सजग भी लेकिन अभी लड़ाई बहुत लम्बी है.. सार्थक रचना !

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  31. क्यों जलना होता है
    हमेशा औरत को ही,
    कभी सती बनकर,
    और कभी तिल तिल कर
    तिरष्कृत और अकेले
    वैधव्य का बोझ ढ़ोते.
    क्यों कर दिया जाता है
    हमेशा मुझे ही शापित?

    :-( bahut sunder rachna

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