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Thursday, August 27, 2015

शब्दों का मौन

अंतस का कोलाहल
रहा अव्यक्त शब्दों में,
कुनमुनाते रहे शब्द
उफ़नते रहे भाव
उबलता रहा आक्रोश
उठाने को ढक्कन 
शब्दों के मौन का।

बहुत आसान है 
फेंक देना शब्दों को 
दूसरों पर आक्रोश में,
हो जाते शब्द
शांत कुछ पल को 
हो जाती संतुष्टि अभिव्यक्ति की।

होने पर शांत तूफ़ान 
डूबने उतराने लगते शब्द
पश्चाताप के दलदल में,
हो जाता और भी कठिन 
निकलना इस दलदल से।


कब होता है शाश्वत
अस्तित्व तूफ़ान का,
बेहतर है सहलाना शब्दों को 
बहलाना रहने को मौन
तूफ़ान के गुज़र जाने तक।

....©कैलाश शर्मा

Thursday, August 13, 2015

बंजारा

जग से है क्यूँ मोह बढाता
कौन हुआ किसका बंजारा।
मिले काफ़िले उन्हें भुला दे 
कौन साथ चलता बंजारा।

कौन रुका है यहाँ सदा को
कौन ठांव होता अपना है।
सभी मुसाफ़िर हैं सराय में
एक एक सबको चलना है।
पल भर हाथ थाम ले काफ़ी
सदा साथ सपना बंजारा।

अच्छा बुरा कौन है जग में
जो भी मिलता साथ उठाले।
कौन है अपना कौन पराया
जो भी मिलता गले लगाले।
छोड़ यहीं जब सब जाना है
क्यूँ है फ़िर चुनता बंजारा।


आज़ नहीं, न कल था तेरा
आने वाला कल क्या होगा। 
मेहंदी रचा हाथ में कोई
इंतज़ार कब करता होगा।
थके क़दम पर नहीं है रुकना
नियति तेरी चलना बंजारा।

......©कैलाश शर्मा