करीने से सज़ी कब ज़िंदगी है,
यहां जो भी मिले वह ज़िंदगी है।
सदा साथ रहती कब चांदनी है,
अँधेरे से सदा अब बंदगी है।
हमारी ज़िंदगी कब थी हमारी,
पली गैर हाथों यह ज़िंदगी है।
नहीं है नज़र आती साफ़ नीयत,
जहां देखता हूँ बस गंदगी है।
दिखाओगे झूठे सपने कब तक,
सजे फिर कब है बिखर ज़िंदगी है।
...©कैलाश शर्मा
बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (06-01-2019) को "कांग्रेस के इम्तिहान का साल" (चर्चा अंक-3208) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार...
Deleteबहुत खूब
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteसच हा हमारी कभी नहीं थी ... इसलिए जो मिली है उसे जिंदगी मान के जीना ही अच्छा ...
ReplyDeleteदर्शनिकता लिए कुछ शेर कमाल के हैं ...
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteसदा साथ रहती कब चांदनी है,
ReplyDeleteअँधेरे से सदा अब बंदगी है।
बहुत सार्थक शे शेरों से सजी रचना आदरणीय सर | सादर सस्नेह शुभकामनायें |
बहुत सुन्दर प्रस्तुति जी
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना, कैलाश जी।
ReplyDeleteबहुत कुछ न कहते हुए भी बहुत कुछ कह दिया इन शब्दों में ...कैलाश जी।
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