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Wednesday, May 30, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (११वीं-कड़ी)


द्वितीय अध्याय
(सांख्य योग - २.५७-६३)

शुभ को पाकर न हर्षित हो,
न विषाद अशुभ से होता.
है आसक्ति शून्य सर्वत्र,
वह ही स्थिर बुद्धि है होता.

जैसे कच्छप अंग सभी को 
सब ओरों से है समेटता.
स्थिर बुद्धि इन्द्रियाँ अपनी 
सब विषयों से है समेटता.

विषयों से निवृत्त भले हों,
विषयों से आसक्ति न जाती.
साक्षात्कार आत्मा से जब हो,
विषय राग निवृत्ति हो जाती.

हे कौन्तेय! विवेकी जन हैं
मोक्ष प्राप्ति की कोशिश करते.
पैदा करतीं विक्षोभ इन्द्रियाँ,
मन फिर कब काबू में रहते.

इन्द्रिय पर जो संयम करके,
मन एकाग्र लगाता मुझ में.
बुद्धि प्रतिष्ठित होती उसकी
जो कर लेता उनको वश में.

विषयों का चिंतन करने से
मन विषयों में ही लग जाता.
आसक्ति इच्छा जनती है,
काम क्रोध फ़िर पैदा करता.

क्रोध नष्ट करता विवेक को,
स्मृति जिससे विचलित हो जाती.
स्मृति विभ्रम है बुद्धि विनाशक,
बुद्धिनाश विनाश कारण हो जाती.
                           
                              ......क्रमशः 


कैलाश शर्मा 

Monday, May 28, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (१०वीं-कड़ी)


द्वितीय अध्याय
(सांख्य योग - २.५१-५६)

कर्मजनित फल तज कर के
जन्म बंधनों से छुट जाते.
बुद्धि युक्त साधक आखिर में
परम मोक्ष पद को हैं पाते.

जब तुम अपनी बुद्धि अर्जुन
मोह कलुष से पार करोगे.
जितना सुना, सुनोगे आगे,
वैराग्य भाव उससे पाओगे.

श्रुतियों से विचलित तव बुद्धि,
जब यह निश्चल हो जायेगी.
अचल समाधि पाओगे जब,
योग अवस्था मिल जायेगी.

अर्जुन :
केशव तुम समझाओ मुझको
क्या लक्षण एकाग्र चित्त का.
कैसी वाणी, चाल चलन है 
जो स्थितप्रग्य बताओ उसका.

भगवान कृष्ण :
हो संतुष्ट स्वयं के अन्दर,
सभी कामनायें तज देता.
पार्थ, उसी साधक जन को  
स्थितप्रग्य है जाना जाता. 

होता न उद्विग्न दुखों से 
सुख की उसको चाह न होती.
राग, द्वेष, भय से ऊपर है
उसकी अविचल बुद्धि है होती.

              ......क्रमशः 

कैलाश शर्मा 

Friday, May 25, 2012

मुखौटे

ज़िंदगी की दौड़ में
सबसे आगे रहने की चाह में,
हर रिश्ते
हर संबंधों के सामने 
पहन लिये 
अनगिनत मुखौटे.


आज खड़ा विजय रेखा पर
अनजान अपने ही अस्तित्व से,
ढूंढ रहा हूँ वह चेहरा
जो हो गया है गुम
अनगिनत मुखौटों के बीच.


कैलाश शर्मा 

Wednesday, May 23, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (९वीं-कड़ी)


द्वितीय अध्याय
(सांख्य योग - २.४५-५०)

त्रिगुण कर्म वेदों में वर्णित,
उनसे ऊपर उठो पार्थ तुम.
नित्य सत्व में स्थित हो कर,
सुख दुःख से निर्द्वंद बनो तुम.


चहुँ ओर जब बाढ़ उमडती,
कुएं से जो सिद्ध प्रयोजन.
ब्रह्मनिष्ठ जन का भी होता,
सब वेदों से वही प्रयोजन.

है अधिकार कर्म पर केवल,
फल पर न अधिकार समझना.
बनो न हेतु कर्म फल के तुम,
पर अकर्म आसक्त न बनना.

तज कर मोह कर्म के फल का,
कर्म करो तुम योग समझ कर.
दुःख सुख में समत्व भाव ही 
कहलाता है योग धनञ्जय.

बुद्धियोग की तुलना में,
है निकृष्ट, कर्म फल हेतु.
होते वे नर दीन हीन हैं,
फल जिनके कर्मों का हेतु.

अच्छे और बुरे कर्मों को 
बुद्धियुक्त साधक तज देते.
बनो कर्म योग के साधक,
कर्म कुशलता योग हैं कहते.

               ...... क्रमशः 

कैलाश शर्मा  

Monday, May 21, 2012

नदी और नारी

नदी और नाला
बहता है पानी 
दोनों में.
एक में स्नान करके
समझते हैं 
मुक्त हो गये सभी पापों से
और दूसरे के पास से 
गुज़र जाते हैं
ज़ल्दी ज़ल्दी
नाक पर रूमाल रख के.


पानी तो पानी है
नदी का या नाले का,
फ़र्क पैदा करता है 
सिर्फ़ आदमी
बहाकर अपनी गन्दगी.


नदी या नारी
होती हैं दोनों अभिशप्त 
आदमी की हैवानियत से
जो बना देता है 
एक नदी को गन्दा नाला,
और एक नारी को 
बैठा देता है कोठे पर
उठा कर फ़ायदा 
उसकी मज़बूरी का
और गुज़रता है दिन में 
ओढ़ कर शराफत का लवादा,
काले चश्मे के अन्दर से
ताकते दूषित नज़रों से.

कैलाश शर्मा

Saturday, May 19, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (आठवीं-कड़ी)


द्वितीय अध्याय
(सांख्य योग - २.३८-४४)


सुख दुःख, लाभ हानि सम,
हार जीत न चिंतित करते.
जो ऐसा सोच युद्ध में उतरें,
वे नहीं पाप के भागी बनते.


सांख्य बुद्धि बतलाई अब तक,
कर्म योग मैं अब बतलाता.
पाकर कर्म योग बुद्धि को
छूट कर्म बंधन नर जाता.



करते जो प्रारम्भ कर्म है,
उसका नाश नहीं होता है.
न विपरीत है फल ही मिलता,
न जन्म मृत्यु भय ही होता है.


कर्म योग का जो साधक है,
स्थिर एकनिष्ठ बुद्धि है होती.
अविवेकी फल इच्छुक जो है,
उस की अनंत कामना होती.


वेद वाक्य में प्रीति है जिनको
वेदों को ही सब कुछ मानें.
बहकाते हैं वे सब जन को,
कर्मकाण्ड से न आगे जानें.


हैं आसक्त कामनाओं में जो
पुरुषार्थ बस स्वर्ग प्राप्ति.
कर्म काण्ड का वर्णन करते,
होती जिनसे फल की प्राप्ति.


भोग और ऐश्वर्य प्राप्ति को
विभिन्न क्रियायें वे बतलाते.
जो ऐश्वर्य, भोग के इच्छुक,
स्थिर एकनिष्ठ बुद्धि न पाते.


                .......क्रमशः 


कैलाश शर्मा 

Thursday, May 17, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (सातवीं-कड़ी)


द्वितीय अध्याय
(सांख्य योग - २.२९-३७)


कुछ आश्चर्य सम देखें आत्मा,
कुछ आश्चर्य सम वर्णन करते.
करते श्रवण मान कुछ आश्चर्य,
कथन श्रवण से कुछ न समझते.


करती जो निवास सब तन में,
नित्य,न उसका वध कर सकते.
व्यर्थ सोचते हो सब के बारे में,
उचित नहीं तुम शोक जो करते.


समझो पार्थ धर्म तुम अपना,
डरना क्षत्रिय को उचित नहीं है.
युद्ध धर्म रक्षा को तज कर,
श्रेयस्कर कुछ अन्य नहीं है.


किस्मत वाले हैं वे क्षत्रिय,
जो ऐसा अवसर हैं पाते.
भाग्यवान ऐसे वीरों को,
स्वयं स्वर्ग द्वार खुल जाते.


धर्म युद्ध से हटता जो पीछे,
वह अपयश का  भागी होता.
सम्मानित व्यक्ति को अपयश,
अधिक मृत्यु से दुखकर होता.


ये सब महारथी समझेंगे 
युद्धविमुख हो गए हो भय से.
सम्मानित थे जिन नज़रों में,
गिर जाओगे उन नज़रों से.


बोलेंगे अनचाही बातें, 
सामर्थ्य तुम्हारी पर शक होगा.
शत्रुजनों की बातें सुनकर, 
क्या इससे बढ़ कर दुःख होगा?


यदि तुम मारे गये युद्ध में,
निश्चय पार्थ स्वर्ग पाओगे.
पायी तुमने जीत अगर तो
पृथ्वी पर सब सुख पाओगे.


                .......क्रमशः 


कैलाश शर्मा 

Tuesday, May 15, 2012

किशोरों में बढ़ती अपराध प्रवृति



     समाचार पत्रों में सुबह सुबह हमारे किशोरों की गंभीर अपराधों में शामिल होने की खबरें जब अक्सर देखता हूँ तो पढ़ कर मन क्षुब्ध हो जाता है. कुछ दिन पहले समाचार पत्रों में खबर थी कि चार किशोरों ने कक्षा से १२ साल के लडके को बाहर खींच कर निकाला और चाकुओं से उसे घायल कर दिया. उसका कसूर केवल इतना था कि उसने कुछ दिन पहले अपने साथ पढने वाली मित्र को उनके दुर्व्यवहार से बचाया था. इसी तरह की एक घटना में एक किशोर ने अपने साथी का इस लिये खून कर दिया क्यों कि उसे शक था कि उसने उस पर काला जादू किया है. कुछ समय पहले एक और दिल दहलाने वाली खबर पढ़ी कि एक १५ साल के किशोर ने अपनी पडौस की महिला से ५० रुपये उधार लिये थे और जब उस महिला ने यह बात उसकी माँ को बता दी तो उसे इतना क्रोध आया कि उसने उसके घर जा कर उस महिला पर चाकू से हमला कर दिया और जब उसकी चीख सुन कर पडौस की दो महिलायें बचाने के लिये आयीं तो उसने उन पर भी हमला कर दिया और तीनों महिलाओं की मौत हो गयी. एक छोटी जगह की इसी तरह की एक खबर और पढ़ी थी कि स्कूल से अपने साथी के साथ लौटते हुए एक लडकी को उसके साथ पढने वाले ४,५ साथियों ने रास्ते में रोक कर लडकी के साथ सामूहिक बलात्कार किया. अपने ही साथ पढ़ने वाले साथी का फिरौती के लिये अपहरण और हत्या के कई मामले समाचारों में आये हैं. बलात्कार, लूट, वाहन चोरी, जेब काटना, चोरी करने आदि के समाचार तो बहुत आम हो गये हैं. छोटी उम्र से शराब और ड्रग्स का प्रयोग एक सामान्य शौक बन गया है. आज के किशोरों का व्यवहार देख कर समझ नहीं आता कि इस देश की अगली पीढ़ी का क्या होगा.

     क्या कारण है किशोरों में इस बढ़ती हुई अपराध प्रवृति का ? संयुक्त परिवारों के विघटन और माता पिता दोनों के अपने अपने कार्यों में व्यस्त होने के कारण बच्चों की उचित देखभाल का अभाव और उन्हें उचित संस्कार न दे पाना एक मुख्य कारण है. हम बच्चों को सभी भौतिक सुख सुविधायें तो दे देतें हैं लेकिन उन्हें यह समझाना कि कौन सा काम उचित है और कौन सा अनुचित, यह बताने के लिये हमारे पास समय नहीं है. परिणामतः उनके गलत सोहबत में पडने का पूरी संभावना रहती है. संयुक्त परिवारों में बच्चों को सही मार्ग दर्शन और नैतिक शिक्षा देने का कार्य दादा, दादी और परिवार के बुजुर्गों के हिस्से में आता था, लेकिन एकल परिवारों में उनको यह शिक्षा देने का समय किसी के पास नहीं है. एकल परिवार में बच्चे अपने आप को अकेला महसूस करने लगते हैं, और माता पिता के साथ और स्नेह का अभाव उन्हें समाज के प्रति विद्रोही बना देता है.

     आज टीवी, फिल्म आदि का उद्देश्य केवल पैसा कमाना हो गया है और किसी मार्ग दर्शन के अभाव में किशोर छोटी उम्र से ही हिंसा और अश्लीलता से रूबरू होने लगते हैं और सोचने लगते हैं कि यही जीवन का असली और अनुकरणीय रूप है. एक दो दिन पहले मेक्सिको की एक खबर थी कि छठी कक्षा के कुछ छात्रों ने स्कूल में मध्यावकाश में स्कूल के एक खाली कमरे में एक अश्लील विडियो फिल्म बनायी और बाद में उसे इन्टरनेट पर अपलोड कर दिया. इस सब का मुख्य कारण टीवी और इन्टरनेट पर आसानी से अश्लील सामिग्री का उपलब्ध होना और माता पिता का उनके कार्यकलापों पर कोई नियंत्रण न होना ही है.

     देश में विकास के असंतुलन के कारण एक ओर धनी और धनी होते जा रहे हैं और दूसरी ओर गरीब और गरीब. धनिकों की जीवन शैली, दौलत का भद्दा प्रदर्शन, गरीब किशोरों के मन में एक ईर्ष्या की भावना पैदा करता है और वे सोचने लगते हैं कि वे भी क्यों न इन सब वस्तुओं और सुख सुविधाओं को प्राप्त करें और उसी तरह जीवन जीयें. परिणामतः वे गैर क़ानूनी कार्यों की ओर आकर्षित होने लगते हैं, और एक बार अपराध के दलदल में फंसने के बाद कभी उससे बाहर नहीं आ पाते. एक बार गलत संगत में पडने के बाद वे जाने या अनजाने अपने साथियों के दवाब और प्रोत्साहन से बड़े अपराधों की दुनियां में प्रवेश कर जाते हैं.

     किसी समय शिक्षक विद्यार्थियों के लिये एक उदाहरण हुआ करते थे. लेकिन आज शिक्षा केवल एक व्यापार बन कर रह गया है और शिक्षक विद्यार्थियों से एक अपनेपन का भाव नहीं जोड़ पाते और उन्हें विद्यार्थियों की अपनी समस्याओं से कोई सरोकार नहीं होता. वे बच्चों में नैतिक मूल्यों का विकास करने में कोई रूचि नहीं दिखाते. गरीब परिवारों के बच्चों को न तो घर में और न उन स्कूलों में जहां वे जाते हैं ऐसा वातावरण मिलता है जो उनके चारित्रिक और मानसिक विकास में सहायक हो. स्वाभाविक है कि उनकी पढ़ाई से अरुचि हो जाती है और ग़लत संगत और आसपास के माहौल से प्रभावित हो अपराध की दुनियां में कदम बढाने लगते हैं.

     हमारी शिक्षा पद्धति में भी आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है. शिक्षा का उद्देश्य केवल डिग्री पाना न रह जाये, जिसके बाद दर दर नौकरी के लिये भटक कर निराश होना पड़े. व्यावसायिक शिक्षा हमारी शिक्षा प्रणाली का एक अभिन्न अंग हो जिस से शिक्षा समाप्ति के बाद कोई बेकार न रहे और किसी सार्थक कार्य में लग सके.

     हमें अपने किशोरों को अपराध जगत से दूर रखने के लिये घर, स्कूल, समाज के स्तर पर एकीकृत और समग्र प्रयास करने की ज़रूरत है. कोई भी किशोर अपनी खुशी से अपराध जगत में नहीं जाता, बल्कि इस के लिये घर, पडौस, स्कूल और समाज का वातावरण तथा परिस्थितियां बहुत हद तक ज़िम्मेदार हैं. अगर हम शुरू से ही इस ओर ध्यान नहीं देंगे तो उन बच्चों को, जो समाज के विकास में एक सकारात्मक योगदान दे सकते हैं, अपराध जगत की ओर बढने से नहीं रोक पायेंगे.

कैलाश शर्मा 

Sunday, May 13, 2012

माँ

नहीं महसूस  हुआ  तुम्हारा भार 
जब भी उठाया गोदी में,
पकड़े रही उंगलियां 
कहीं भटक न जाओ,
जब भी आये रोते 
लगा लिया कंधे से.

आज उम्र ने कर दिया अशक्त
अपना भी बोझ ढोने में,
पर बन नहीं पाये तुम
लकड़ी इन हाथों की. 
सूख गये आंसू 
इंतज़ार में
कभी तो समझोगे
माँ कुछ नहीं चाहती
सिवाय प्यार के.

वक़्त की मज़बूरी ने 
सिखा दिया 
लडखडाते  पैरों को चलना.
नहीं ढूंढती अब कंधा 
जिस पर सिर रख कर
कुछ पल रो सकूँ.
नहीं चाहिए  अब 
कोई नाम या पहचान,
मैंने इतिहास के पन्नों पर 
ज़मी धूल बनकर
जीना सीख लिया है.

कैलाश शर्मा 

Friday, May 11, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद ( छठी - कड़ी)


द्वितीय अध्याय
(सांख्य योग - २.२३-२८)

शस्त्र नहीं छिन्दित कर सकते,

अग्नि जला न इसको सकती.
जल गीला न करे आत्मा,
सुखा वायु न इसको सकती.


स्थिर, अचल, व्याप्त है सब में, 
है यह नित्य, अमर, अविनाशी.
शोक किसलिए करते अर्जुन,
यह अमूर्त,अचिन्त्य, अविकारी.


जब शरीर से जन्मा कहते,
मृत्यु मानते तन मरने से.
अगर सोचते हो तुम ऐसा,
उचित नहीं शोक करने से.


जन्म लिया, उसको मरना है,
मरने पर फ़िर जन्म वो लेता.
अपरिहार्य जब जन्म मृत्यु है,
कहो पार्थ शोक फ़िर कैसा ?


जन्म पूर्व अव्यक्त हैं प्राणी,
लेता स्थूल रूप जन्म लेने पर.
मृत्यु करे अव्यक्त उन्हें फ़िर,
करते शोक हो अर्जुन क्यों कर.


                .......क्रमशः 
कैलाश शर्मा 

Wednesday, May 09, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद ( पंचम कड़ी)


द्वितीय अध्याय
(सांख्य योग - २.१६-२२)



राज्य न होता कभी असत् का,
सत का कभी अभाव न होता.
जो यथार्थ का रूप जानते
उनको इसका ज्ञान है होता.


व्याप्त चराचर जग में जो है
अविनाशी समझो तुम उसको.
नहीं हुआ जग में कोई भी
जो विनाश कर पाये उसको.


होता न विनाश आत्मा का
नहीं नाप सकते तुम इसको.
केवल यह शरीर नश्वर है,
चलो खड़े तुम हो लड़ने को.


नहीं आत्मा वध करती है,
और न इसका है वध होता.
मारे जाने पर भी तन के,
हनन आत्मा का न होता.


नित्य, सनातन, शाश्वत आत्मा,
इसका जन्म मरण न होता.
समझ गया जो इस रहस्य को,
कैसे वह वधकारी होता ?


यथा जीर्ण वस्त्र को तज कर 
मानव नूतन वस्त्र धारता.
तथा जीर्ण शरीर छोड़ कर 
वह  नूतन काया में जाता.


             ........क्रमशः 


कैलाश शर्मा 

Sunday, May 06, 2012

बेटी - हाइकु

   (1)
घर की शान 
प्रेम का प्रतिमान 
प्यारी बेटियाँ.

   (२)
दुर्गा की पूजा
कन्या की भ्रूण हत्या
दोगलापन.

   (३)
क्या देगा बेटा 
लाई थी मैं भी प्यार
आने तो देते.

   (४)
बेटे की चाह 
माँ हुई भागीदार
बेटी की हत्या.

   (५)
कैसे जी पाती
आफरीन बन के
न आना अच्छा.

   (६)
क्यों भूल गये
वह भी औरत थी
तुम्हें जन्मा था.

   (७)
नसीब लायी 
जन्म पूर्व मरना
सिर्फ़ बेटी ही.

   (८)
खुशियाँ गूंजी
आँगन है चहका
बिटिया आयी.

कैलाश शर्मा 

Friday, May 04, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद ( चतुर्थ कड़ी)


द्वितीय अध्याय
(सांख्य योग - २.११-१५)


श्री कृष्ण भगवान :


नहीं शोक करने के लायक,
उन बांधव का शोक हो करते.
जीवित या मृत हो कोई जन,
पंडित उनका शोक न करते. 


नहीं हुए, आगे न होंगे
मैं या तुम यह सत्य नहीं है.
हम सब सदां सदां से ही हैं,
होंगे आगे भी, सत्य यही है.


बचपन, यौवन और बुढ़ापा
जैसे मानव तन को  आता.
धीरज जन न शोक मनाते,
मृत्योपर नव तन मिल जाता.


इन्द्रिय का सम्बन्ध जगत से
है सुख दुःख को देने वाला.
सहन करो अर्जुन तुम यह सब
यह सब क्षणिक, न रहने वाला.


जो सुख दुःख में सम रहता है,
कष्ट न धीर पुरुष हैं पाते.
व्यथित नहीं होते जो इनसे,
वही परम मोक्ष को पाते.
           
                 ........क्रमशः


 कैलाश शर्मा 

Tuesday, May 01, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (तीसरी कड़ी)


द्वितीय अध्याय
(सांख्य योग - २.१-१०)


अर्जुन की दयनीय दशा थी,
छलक रहे आंसू नयनन से.
अंतर्मन दुःख से कातर था,
मधुसूदन बोले अर्जुन से.


कैसे तुमको मोह हो गया, 
विषम युद्ध संकट के पल में
श्रेष्ठ जन कभी न करते ऐसा 
स्वर्ग,यश न पाओगे जग में.


बनो नपुंसक न तुम अर्जुन,
नहीं शोभनीय है यह तुमको.
मन की दुर्बलता को छोडो,
हो जाओ तुम  खड़े  युद्ध को.


अर्जुन :
भीष्म पितामह, गुरु द्रोण पर,
बाण प्रहार करूं मैं कैसे ?
भीख मांग कर करूं गुजारा,
बेहतर होगा उनके वध से.


अर्थ कामना से प्रेरित हो
जो गुरुजन को मैं मारूँगा.
उनका रक्त सना जिसमें हो
वह सुख मैं कैसे भोगूँगा.


नहीं पता है कौन बली है,
कौन युद्ध जीते हारेगा.
वध करके धृतराष्ट्र पुत्र का,
कौन भला जीना चाहेगा.


संशय में पड़ने के कारण 
मम स्वभाव भी लुप्त होगया.
मेरा धर्म बताओ माधव,
मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया.


शिष्य आपका शरण में आया,
निश्चित श्रेयस्कर मुझे बताओ.
नहीं समझ मेरे कुछ आता,
अब तुम मुझको राह सुझाओ.


राज्य मिले सम्पूर्ण धरा का
या स्वामित्व सभी देवों का.
नहीं उपाय समझ में आता,
गहन शोक हरे जो मन का. 


नहीं करूंगा युद्ध मैं माधव,
अर्जुन मौन हुए यह कह कर.
युद्ध भूमि में व्यथित पार्थ से
हृषिकेश ने कहा ये हंस कर.


                   .....क्रमशः 


कैलाश शर्मा