कुछ घटता है, कुछ बढ़ता है,
जीवन ऐसे ही चलता है।
इक जैसा ज़ब रहता हर दिन,
नीरस कितना सब रहता है।
मन के अंदर है जब झांका,
तेरा ही चहरा दिखता है।
चलते चलते बहुत थका हूँ,
कांटों का ज़ंगल दिखता है।
आंसू से न प्यास बुझे है,
आगे भी मरुधर दिखता है।
...©कैलाश शर्मा
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (07-06-2019) को "हमारा परिवेश" (चर्चा अंक- 3359) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार...
Deleteकाँटों के जंगल हों या सूखे मरुधर जीवन उनके पीछे भी मिलता है..सुंदर रचना !
ReplyDeleteआभार...
ReplyDeleteबेहतरीन रचना
ReplyDeleteअच्छी कविता .. जीवन वाकई काँटों का जंगल है ..
ReplyDeleteबहुत सरल, सत्य और सुन्दर दर्शन!!!
ReplyDeleteप्रभावशाली प्रस्तुति
ReplyDeleteआपकी रचना बहुत कुछ सिखा जाती है
जीवन ऐसे ही चलता है ... कहीं दुःख तो कहीं ख़ुशी कहीं धूप तो कहीं छाँव ...
ReplyDeleteभावपूर्ण रचना ...
बहुत सुंदर रचना।
ReplyDeleteअच्छी रचना
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना
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