Monday, June 23, 2014

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (१८वां अध्याय)

                                  मेरी प्रकाशित पुस्तक 'श्रीमद्भगवद्गीता (भाव पद्यानुवाद)' के कुछ अंश: 

      अठारहवाँ अध्याय 
(मोक्षसन्यास-योग-१८.३६-४८ 

हे अर्जुन! मैं अब तुम को 
तीन प्रकार के सुख बतलाता.
जिसमें करके रमण है साधक
मुक्ति सभी दुःख से है पाता.  (१८.३६)

विष के समान शुरू में लगता 
किन्तु अंत अमृत सम होता.
उसे ही सात्विक सुख कहते हैं 
निर्मल बुद्धि से पैदा जो होता.  (१८.३७)

विषय और इन्द्रिय का सुख है
अमृत सम प्रारम्भ में होता.
पर परिणाम दुखों का कारण 
ऐसा सुख है राजसिक होता.  (१८.३८)

आरम्भ व अंत जिस सुख का 
आत्मा को मोहित है करता.
निद्रा आलस्य प्रमाद से पैदा 
वह तामस सुख जाना जाता.  (१८.३९)

पृथ्वी, आकाश व देव में 
नहीं कोई भी ऐसा प्राणी.
प्रकृतिजन्य तीन गुणों से 
मुक्त हो जिनसे वह प्राणी.  (१८.४०)

कर्म ब्राह्मण व क्षत्रिय के 
और वैश्य शूद्रों के अर्जुन.
अलग अलग से गये हैं बांटे
स्वभावजनित गुणों के कारण.  (१८.४१)

शुचिता और इन्द्रियों पर संयम 
शांत चित्त तप क्षमा सरलता.
स्वभावजनित कर्म ब्राह्मण के 
ज्ञान विज्ञान और आस्तिकता.  (१८.४२)

तेज शौर्य धैर्य चतुराई, 
नहीं युद्ध से पीछे हटना.
कर्म स्वभाव से क्षत्रिय के 
दान भाव ईश्वर में रखना.  (१८.४३)

कृषि वाणिज्य और पशुपालन 
है स्वाभाविक कर्म वैश्यों का.
परिचर्या व सेवा करना 
स्वभावाजनित कर्म शूद्रों का.  (१८.४४)

स्वाभाविक कर्मों को करके 
मनुज प्राप्त संसिद्धि करता.
मैं बतलाता हूँ कैसे वह जन 
स्वकर्मों से सिद्धि है लभता.  (१८.४५)

जिससे सब प्राणी की उत्पत्ति
और विश्व व्याप्त यह रहता.
करके स्वकर्मों से अर्चना उसकी 
मनुज सिद्धि को प्राप्त है करता.  (१८.४६)

अपना गुणहीन कर्म भी होता 
श्रेष्ठ कुशल कर्म अन्य जन के.
नहीं पाप लगता है उसको 
स्वभावाजनित कर्म को कर के.  (१८.४७)

जन्मजनित कर्म को अर्जुन, 
दोषयुक्त हो फिर भी न तजते.
जैसे धुएँ से व्याप्त है अग्नि,
सभी कर्म दोष व्याप्त हैं रहते.  (१८.४८)

             .....क्रमशः

...कैलाश शर्मा 

Sunday, June 15, 2014

अनजाना चेहरा

नज़र बचा कर गुज़र गया वो, जैसे मैं अनजाना चेहरा,
धुंधली पड़ती नज़र ने शायद, देखा था अनजाना चेहरा.

आकर गले लिपट जाता था, ज़ब भी घर में मैं आता था,
कैसे उसको आज हो गया, मैं बस इक अनजाना चेहरा.

उंगली पकड़ सिखाया चलना, बोझ लगा न वह कंधों पर,
जब अशक्त हो गये ये कंधे, लगता उसको बेगाना चेहरा.

स्वारथ की आंधी में उजड़े, कितने बाग़ यहाँ रिश्तों के,
अब तो घर घर में दिखता है, मुझको बस अनजाना चेहरा.

नहीं प्रेम आदर जब उर में, पितृ दिवस का अर्थ न कोई,   
धुंधली आँखों को नज़र न आया, अब कोई पहचाना चेहरा.

(अगज़ल/अभिव्यक्ति)

....कैलाश शर्मा 

Tuesday, June 10, 2014

यादों का सफ़र

न लिखा था कोई ख़त 
न दिया था कोई गुलाब
न ही किया था कोई वादा,
चलते रहे थे साथ 
यूँ ही कुछ दूरी तक
अपने अपने ख्वाब 
अंतस में छुपाये।

न जाने क्यों 
न ढल पाये भाव
शब्दों में,
बदल गयीं राहें
न जाने किस मोड़ पर
कब अनजाने में।


छटपटाता है आज़ वह मौन
पश्चाताप के चंगुल में,
नहीं कोई निशानी साथ में 
कोरे हैं आज भी पन्ने,
नहीं कोई गुलाब
किताबों के बीच।

केवल ताज़ा है
वह कुछ पल का साथ
आज़ भी यादों में।

....© कैलाश शर्मा