Tuesday, November 29, 2011

अब मन बृज में लागत नाहीं

सूनी सूनी हैं अब ब्रज गलियाँ,
उपवन में न खिलती कलियाँ.
वृंदा सूख गयी अब वन में,
खड़ी उदास डगर पर सखियाँ.


जब से कृष्ण गये तुम बृज से,
अब मन बृज में लागत नाहीं.


माखन लटक रहा छींके पर,
नहीं कोई अब उसे चुराता.
खड़ीं उदास गाय खूंटे पर,
बंसी स्वर अब नहीं बुलाता.


तरस गयीं दधि की ये मटकी,
कान्हा अब कंकड़ मारत नाहीं.


क्यों भूल गये बचपन की क्रीडा,
क्यों भूल गये बृज की माटी तुम?
एक बार तुम मिल कर जाते,
यूँ होती नहीं गोपियाँ गुमसुम.


अंसुअन से स्नान करत अब,
यमुना तट पर जावत नाहीं.  

Wednesday, November 23, 2011

ज़ंजीरें

झूले की छोटी छोटी कड़ियाँ 
एक दूसरे से जुड़कर
संभाले हुए हैं मेरा बोझ,
और उन कड़ियों की परछाई
पडती है मेरे पैरों पर
और देती है अहसास 
ज़कडे होने का
ज़ंजीरों में,
मेरा सम्पूर्ण अस्तित्व.


नहीं होती हैं बंधन 
सिर्फ़ जंजीरें लोहे की,
हमारी यादों की परछाईं भी
कभी बन जाती हैं 
ज़ंजीरें हमारी ज़िंदगी की
और नहीं मुक्त हो पाते
उस बंधन से
उम्र भर.

Saturday, November 12, 2011

एक बार बचपन मिल जाये

                            जीवन की सरिता में बहते,
                            थक कर खड़ा आज मैं तट पर.
                            बहता समय देख कर सोचूँ,
                            एक बार बचपन मिल जाये.


                            छोटी बातों में खुशियाँ थीं,
                            कंचों ही का था ढ़ेर खज़ाना.
                            काग़ज़ का एक प्लेन बनाकर,
                            दुनियां भर में उड़ कर जाना.


                            कहाँ खो गया है वह बचपन,
                            जीवन की इस दौड़ भाग में.
                            कच्चे अमरूद पेड़ से तोड़ें,
                            पीछे पीछे माली चिल्लाये .


                            भौतिक सुविधायें बहुत जुड़ गयीं,
                            पर मासूम  खुशी अब  ग़ुम है.
                            बारिस आती  अब भी गलियों में.
                            पर काग़ज़ की वो कश्ती ग़ुम है.


                            पल में रोना, फिर हंस जाना,
                            जीवन कितना सहज सरल था.
                            मुझसे ले लो मेरी सब दौलत,
                            माँ बस तेरा चुम्बन मिल जाये.


                            जाना सभी छोड़ कर जग में,
                            क्यों यह समझ नहीं मैं पाया.
                            जैसा जग में आया निर्मल,
                            वैसा ही क्यों मैं रह न पाया.


                            अब इस जीवन  संध्या में,
                            नयी सुबह की आस व्यर्थ है.
                            उंगली अगर पकड़ले बचपन,
                            कुछ पल को बचपन आ जाये.
                            Kailash C Sharma
                         

Friday, November 04, 2011

क्षणिकाएं

१)
छुपा के रखा है 
दिल के एक कोने में 
तुम्हारा प्यार,
शायद ले जा पाऊँ
आख़िरी सफ़र में 
अपने साथ
बचाकर 
सब की नज़रों से.

२)
बहुत तेज सुनायी देती है
दिल की धड़कन
और साँसों की सरसराहट 
अकेले सूने कमरे में.
कौन कहता है
कि अकेलापन
अकेला होता है.

३)
डर नहीं लगता 
मौत के साये से,
डर तो यह है
यह ज़िंदगी 
जियें कैसे.

४)
भुलाने को उनको
रख दीं उनकी यादें
बंद करके लिफ़ाफ़े में
किताबों के बीच,
पर क्या करें
रख नहीं पाते
अपने से दूर
वह किताब
कभी बुक शैल्फ पर.

५)
मौन पसरा हुआ अँधेरे में
अश्रु ठहरे हुए हैं पलकों पर,
कैसे निभाऊँ वादा
दिया तुमको,
कैसे समझाऊँ दर्द को अपने
जो आतुर है
बिखरने को
मेरे गीतों में.