Monday, December 29, 2014

एक वर्ष और गया


बीता सो बीत गया,
एक वर्ष और गया।

सपने सब धूल हुए
आश्वासन भूल गया,
शहर अज़नबी रहा
और गाँव भूल गया,
एक वर्ष और गया।

तन पर न कपड़े थे
पर अलाव जलता था,
तन तो न ढक पाये
पर अलाव छूट गया,
एक वर्ष और गया।

खुशियाँ बस स्वप्न रहीं
अश्क़ न घर छोड़ सके,
जब भी सपना जागा
जाने क्यों टूट गया,
एक वर्ष और गया।

आश्वासन घट भर पाये
निकले घट सब रीते,
कल कल की आशा में
जीवन है बीत गया,
एक वर्ष और गया।

फ़िर आश्वासन आयेंगे
सपने कुछ जग जायेंगे,
लेकिन कब ठहरा है
अश्क़ जो ढुलक गया,
एक वर्ष और गया।

जब अभाव ज़ीवन हो
वर्ष बदलते कब हैं,
गुज़र दिन एक गया
समझा एक वर्ष गया,
एक वर्ष और गया।

...कैलाश शर्मा 

Tuesday, December 16, 2014

जीवन नौका

मत बांधो जीवन नौका
किसी किनारे सागर के   
रिश्तों की ड़ोर से,
आती जाती हर लहर
टकरायेगी नौका को
बार बार किनारे से,
और लौट जायेगी
देकर एक नयी चोट  
करके तन क्षत-विक्षत.

छोड़ दो नौका लहरों के सहारे,
शायद न मिले मंज़िल
पर होगा बेहतर डूब जाना
चोट लगने से अंतस को
पल पल बंधकर मज़बूर ड़ोर से.


...कैलाश शर्मा

Tuesday, December 09, 2014

घर

घर नहीं होता बेज़ानदार
छत से घिरी चार दीवारों का,
घर के एक एक कोने में 
छुपा इतिहास जीवन का।

खरोंचें संघर्ष की
जीवन के हर मोड़ की,
सीलन दीवारों पर 
बहे हुए अश्क़ों की,
यादें उन अपनों की 
जो रह गये बन के
एक तस्वीर दीवार की,
गूंजती खिलखिलाहट 
अब भी इस सूने घर में
भूले बिसरे रिश्तों व पल की,
साथ उन टूटे ख़्वाबों का 
जो संजोये थे कभी
बिखरे अभी भी हर कोने में।


अकेलापन तन का
पर नहीं सूनापन मन का 
इस घर की चार दीवारों में,
एक एक ईंट और गारे में
समाहित सम्पूर्ण जीवन इतिहास
देता है सुकून व संतुष्टि,
नहीं महसूस होता अकेलापन
इस सुनसान घर की 
चार दीवारों के बीच,
नहीं खलता मौन 
बातें करते यादों से 
इस जीवन संध्या में।

...कैलाश शर्मा