Friday, June 29, 2012

क्षणिकाएं

   (१)
वक़्त के पन्ने 
हो गये पीले,
जब भी पलटता हूँ
होता है अहसास 
तुम्हारे होने का.

   (२)
तोड़ कर आईना
बिछा दीं किरचें
फ़र्श पर,
अब दिखाई देते 
अपने चारों ओर
अनगिनत चेहरे
और नहीं होता महसूस
अकेलापन कमरे में.

   (३)
दे दो पंख 
पाने दो विस्तार 
उड़ने दो मुक्त गगन में
आज सपनों को,
बहुत रखा है क़ैद 
इन बंद पथरीली आँखों में.

   (४)
जब भी होती हो सामने
न उठ पाती पलकें,
हो जाते निशब्द बयन
धड़कनें बढ़ जातीं.
तुम्हारे जाने के बाद
करता शिकायतें
तुम्हारी तस्वीर से,
नहीं समझ पाया आज तक
कैसा ये प्यार है.

कैलाश शर्मा 

Tuesday, June 26, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (१८वीं-कड़ी)

चतुर्थ अध्याय
(ज्ञान-योग - ४.०१-०९)


श्री भगवान 


महर्षि विवस्वान को पहले 
अविनाशी यह योग बताया.
कहा विवस्वान ने मनु को,
इक्ष्वाकु को मनु ने समझाया.


परंपरा से प्राप्त योग यह,
सीखा एक दूजे से ऋषियों ने.
किन्तु कर दिया धीरे धीरे,
जग में इस को लुप्त काल ने.


वही पुरातन योग हे अर्जुन!
मैंने तुमको प्रगट किया है.
तुम हो मेरे भक्त, सखा प्रिय,
उत्तम योग रहस्य कहा है.


अर्जुन 


विवस्वान प्राचीन पुरुष हैं,
जन्म आपका अभी हुआ है.
कैसे मानूं माधव, उनको
योग तुम्ही ने बतलाया है.


श्री भगवान 


मेरे और तुम्हारे अर्जुन
जाने कितने जन्म हुए हैं.
मैं सब जन्मों से परिचित,
पर तुमको वे ज्ञात नहीं हैं.


अनश्वर और अजन्मा यद्यपि 
ईश्वर मैं सब प्राणी जन का.
स्थिर हो प्रकृति में अपनी
जन्म मैं अपनी माया से धरता.


होता जब जब ह्रास धर्म का
और अधर्म है बढता जाता.
हे भारत! तब तब मैं जग में
स्वयं शरीर धारण कर आता.


रक्षा करने साधु जनों की,
दुष्टों के विनाश के हेतु.
युग युग में मैं जन्म हूँ लेता,
जग में धर्म स्थापना हेतु.


मेरे दिव्य जन्म, कर्मों का
तत्व समझ है जो जन जाता.
मृत्यु बाद वह जन्म न लेता 
अपितु मुझे ही प्राप्त है करता.


               ...........क्रमशः


कैलाश शर्मा 

Sunday, June 24, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (१७वीं-कड़ी)


तृतीय अध्याय
(कर्म-योग - ३.३६-४३)


अर्जुन 


हे वार्ष्णेय बताओ मुझको
ऐसा क्या कारण है होता.
नहीं चाहते हुए भी मानव 
पाप कर्म अग्रसर होता.


श्री भगवान 


काम क्रोध इसका कारण है,
जो रज गुण से पैदा होता.
इसे ही अपना वैरी समझो,
पापी महा, सर्वभोक्ता होता.


धूम्र ढके है जैसे अग्नि,
धूल है दर्पण को ढक लेता.
यथा गर्भ चर्म आच्छादित,
रजगुण तथा ज्ञान ढक देता.


काम ज्ञान आच्छादित करता,
ज्ञानी जन का चिर शत्रु है.
जितना भोगो उतना भडके,
विषय भोग अग्नि सदृश है.


इन्द्रिय, मन, बुद्धि में स्थित
होकर ज्ञान करे आच्छादित.
अर्जुन काम इस तरह करता
सब प्राणी जन को है मोहित.


तुम अपनी इन्द्रिय पर अर्जुन,
सबसे पहले करो नियंत्रण.
पाप रूप काम को तज दो,
ज्ञान विज्ञान नाश का कारण. 


तन से श्रेष्ठ इन्द्रियां होतीं,
श्रेष्ठ इन्द्रियों से मन होता.
मन से निश्चय बुद्धि श्रेष्ठ है,
बुद्धि परे अंतर्यामी आत्मा.


जान बुद्धि से श्रेष्ठ आत्मा
कर संयुक्त आत्मा से मन.
बहुत कठिन विजय है जिस पर
करो काम रूप शत्रु का मर्दन.


........तीसरा अध्याय समाप्त 


             .........क्रमशः


कैलाश शर्मा 

Thursday, June 21, 2012

हाइकु


  (१)
एक हाँ या ना
बदल देती कभी
सारी ज़िंदगी.


   (२)
आंसू को रोको
पोंछेगा नहीं कोई
स्वार्थी दुनियां.


   (३)
रिश्तों की लाश
उठायें कन्धों पर
कितनी दूर?


   (४)
पाला था जिन्हें
बिठा पलकों पर 
चुराते आँखें.


   (५)
सुखा के गयी
प्रेम का सरोवर
स्वार्थों की धूप.


   (६)
बड़े हैं घर
मगर दिल छोटा
वक़्त के रंग.


कैलाश शर्मा 

Tuesday, June 19, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (१६वीं-कड़ी)


तृतीय अध्याय
(कर्म-योग - ३.२५-३५)


अविद्वान व्यक्ति हे भारत!
होकर आसक्त कर्म हैं करते.
अनासक्त लोक संग्रह को 
विद्वत जन हैं कर्म वो करते.


अज्ञानी आसक्त कर्म में,
ज्ञानी करें न उनको विचलित.
है कर्तव्य विद्वान जनों का 
करें अन्य को कर्मों में प्रेरित.


प्रकृतिजन्य गुणों के कारण 
है जन सब कर्मों को कर्ता.
मूढ़ अहंकारी यह समझें 
वह ही सब कर्मों का कर्ता.


त्रिगुण व तदनुसार कर्म का
अर्जुन जो है मर्म जानता.
गुणानुरूप गुण कर्म दिखाते,
वह आसक्त कर्म न बनता.


प्रकृति गुणों के कारण मोहित
गुणकर्मों में आसक्त हैं जन जो.
मूढ़ मति कुछ अंश के ज्ञानी,
विचलित सर्वज्ञ करें न उनको.


कर मुझमें सब कर्म समर्पित,
चित्त आत्मा में स्थिर कर.
युद्ध करो संताप रहित तुम,
ममता और कामना तजकर.

श्रद्धायुक्त बिना संशय के 
मेरे इस मत का पालन करते.
वे जन सदा जगत में अर्जुन,
मुक्त कर्म बंधन से रहते. 


द्वेष भाव से प्रेरित होकर
मेरे मत को नहीं अनुसरते.
होकर भी सर्वज्ञ, मूर्ख वे,
स्वविनाश की ओर हैं बढ़ते.


अपनी अपनी प्रकृति के जैसा
विद्वत जन भी कर्म हैं करते.
इन्द्रिय निग्रह क्या कर सकता
जैसी प्रकृति, कर्म सब करते.


सभी इन्द्रियों के विषयों में,
अपने अपने राग द्वेष हैं.
इनके वश में नहीं मनुज हो,
दोनों उसके परम शत्रु हैं.

हो गुणरहित स्वधर्म चाहे भी,
पर धर्म से श्रेष्ठ वह होता.
मृत्यु श्रेष्ठ भी है स्वधर्म में,
परधर्म सदा भयावह होता.



                 ......क्रमशः


कैलाश शर्मा

Sunday, June 17, 2012

पितृ प्रेम को शब्द नहीं है


(पितृ दिवस पर अपनी एक पुरानी रचना दुबारा पोस्ट कर रहा हूँ)


गीत लिखे माँ की ममता पर, 
प्यार पिता का किसने देखा,
माँ  के  आंसू  सबने  देखे,  
दर्द पिता का किसने देखा.

माँ की ममता परिभाषित है, 
पितृ प्रेम  को  शब्द  नहीं है,
कितने अश्क छुपे पलकों में, 
वहां झाँक कर किसने देखा.

उंगली पकड़ सिखाया चलना, 
छिटक दिया है उन हाथों को,
तन की चोट सहन हो जाती, 
मन  का घाव न  भरते देखा.

दर्द  छुपा कर  बोझ  उठाया, 
झुकने दिया नहीं कन्धों को,
कोई  रख दे  हाथ  प्यार  से, 
इन्हें  तरसते  किसने  देखा.

विस्मृत हो जायें कटु यादें, 
मंजिल पर जाने  से पहले,
हो जायें  ये  साफ़  हथेली, 
मिट जायें रिश्तों की रेखा.

कैलाश शर्मा 

Friday, June 15, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (१५वीं-कड़ी)


तृतीय अध्याय
(कर्म-योग - ३.१६-२४)


ईश्वर निर्मित चक्र न माने 
जीवन पापमयी है होता.
इन्द्रिय सुख में रमा हुआ जो
उसका जीवन व्यर्थ है होता.


करता रमण आत्मा में जो
तृप्त आत्मा में ही होता.
ऐसा जो सन्यासी जन है 
कोई कर्म न उसका होता.


कर्म न करने या करने से
जिसे न कोई प्रयोजन होता.
ब्रह्मा से स्थावर जन तक
अर्थ विषयक संबंध न होता.


सदा कर्तव्य कर्म में रत हो,
होकर अनासक्त तुम अर्जुन.
अनासक्त हो कर्म जो करता,
परम ब्रह्म पाता है वह जन.


जनक आदि केवल कर्मों से
पूर्ण सिद्धि को प्राप्त हुए थे.
कर्म चाहिए तुमको करना
जनकल्याण ध्यान में रख के.


यथा आचरण श्रेष्ठ जनों का
अन्य लोग वैसा ही करते.
वह जैसा आदर्श दिखाते
अन्य अनुसरण वैसा करते.


किंचित कर्म न तीनों लोकों में
आवश्यक है जो मुझको करना.
यद्यपि जो चाहूँ मैं पा सकता,
युक्त कर्म में फिर भी मैं रहता.


यदि आलस्यरहित होकर के
कर्म करूँ न मैं, हे अर्जुन !
सब जन सर्व तरह से मेरा
मार्ग करेंगे वही अनुसरण.


अगर  कर्म करूँ मैं अर्जुन
लोक नष्ट कारण होऊंगा.
वर्णसंकरता जो होगी उससे
प्रजा नाश कारण होऊंगा.


                     .......क्रमशः


कैलाश शर्मा

Wednesday, June 13, 2012

बेटियाँ

दो दो घरों की इज्ज़त औ' प्यार बेटियाँ,
कुदरत का सबसे अनुपम उपहार बेटियाँ.


लगती है आग ज़ब, घर के चिराग से,
शीतल बयार बनकर, आती हैं बेटियाँ.


जब भी हैं घेर लेतीं, तनहाइयां मुझे,
मीठी सी याद बनकर आती हैं बेटियाँ.


बंट जाती फ़र्ज़ में, दो दो घरों के बीच,
फ़िर भी पराये घर की लगती न बेटियाँ.


आँगन भले ही सूना, जाने के उसके बाद,
दिल के करीब हर दम, रहती हैं बेटियाँ.


कैलाश शर्मा 

Monday, June 11, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (१४वीं-कड़ी)


तृतीय अध्याय
(कर्म-योग - ३.८-१५)


नियत कर्म है उसे करो तुम,
कर्म श्रेष्ठ, अकर्म से अर्जुन.
बिना कर्म तो नहीं है संभव
इस शरीर का पालन पोषण.


बांधे वह कर्मों से जन को
कर्म नहीं जो यज्ञ निमित्त.
हो आसक्ति मुक्त कौन्तेय,
कर्म करो तुम यज्ञ निमित्त.


यज्ञ सहित प्राणी रच करके
प्रजापति यह वचन उचारे.
हो वृद्धि इस यज्ञ के द्वारा,
इष्ट काम हों पूर्ण तुम्हारे.


करो तृप्त देवों को यज्ञ से, 
देव तुम्हें भी तृप्त करेंगे.
एक दूसरे के संवर्धन से,
स्व अभीष्ट को प्राप्त करेंगे.


होकर तृप्त यज्ञ से देवा,
मनचाहे सुख को हैं देते.
चोर कहाते जग में वे जन, 
बिना यज्ञ के भोग हैं करते.


यज्ञ शेष अन्न खाकर के
सज्जन पाप मुक्त हो जाते.
दुष्ट पकायें खुद खाने को,
वे हैं केवल पाप ही खाते.


अन्न से होते हैं सब प्राणी,
वर्षा से है अन्न उपजता.
होती वृष्टि यज्ञ करने से,
यज्ञ कर्म से पैदा होता.


यज्ञ कर्म ब्रह्म से पैदा,
अक्षर ब्रह्म जनक वेदों का.
अक्षर ब्रह्म सर्व व्यापी है,
सदा यज्ञ में वास है उसका.


              .......क्रमशः


कैलाश शर्मा 

Saturday, June 09, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (१३वीं-कड़ी)


तृतीय अध्याय
(कर्म-योग - ३.१-७)

अर्जुन 

कर्म मार्ग की यदि तुलना में,
बुद्धि मानते श्रेष्ठ हो माधव.
क्यों मुझको करते हो उद्यत
हिंसक युद्ध धर्म को केशव.  

कहीं कर्म की करें प्रशंसा,
कहीं ज्ञान की महिमा कहते.
मिलीजुली सी बातें कह कर
मेरी बुद्धि भ्रमित हैं करते.  

श्रेष्ठ कौन सा इन दोनों में,
निश्चित करके मुझे बताओ.
मैं कल्याण प्राप्त कर पाऊँ,
मुझे मार्ग तुम वह बतलाओ.

श्री भगवान 

दो निष्ठायें हैं इस जग में,
पहले बतलायी हैं तुम को.
ज्ञान योग सांख्यवादी को,
कर्म योग कर्मवादी को.

कर्म विरत होने से ही जन,
न निष्काम कर्म को पाता.
न केवल सन्यासी हो कर
प्राप्त कोई सिद्धि कर पाता.

कोई जन भी बिना कर्म के 
पल भर को भी न रह सकता.
विवश प्रकृतिजन्य गुणों से
उसे कर्म है करना पडता.

कर्म इन्द्रियों पर संयम है,
मन विषयों का चिंतन करता.
मूढ़ प्रकृति हो गयी है उसकी,
वह मिथ्याचारी कहलाता.

मन से रखे संयमित इन्द्रिय,
अनासक्त हो कर के अर्जुन.
कर्मयोग कर्मेन्द्रिय से  करता,
अति उत्कृष्ट है होता वह जन.
               
                       ......क्रमशः

कैलाश शर्मा 

Wednesday, June 06, 2012

राह मिल जायेगी

ढल जायेगी रात, 
सहर फ़िर आयेगी,
मन में हो विश्वास, 
राह मिल जायेगी.

             
क्यों तलाशते राह 
मिलें न कांटे जिसमें.
कहाँ मिलेंगे नयन
न आये आंसू जिसमें.

सुख दुःख ले लो साथ, 
वक़्त की देन समझ कर,
गम के बादल आज, 
खुशी कल आयेगी.

सूरज जब उगता है,
डरता कब ढलने से.
काँटों से घिर गुलाब,
न डरता है खिलने से.

अगर न हो संघर्ष, 
तो जीवन सूना सूना,
खोओगे एक राह, 
नयी मिल जायेगी.

कितना भी ऊँचा हो पर्वत,
हिम्मत से ऊँचा कब होता?
कितना लंबा सफ़र चाँद का,
मगर राह में कहीं न सोता.

राहें हों सुनसान, 
पथिक कब रुकता है,
थकने दो न पांव,
तो मंज़िल आयेगी.


कैलाश शर्मा 

Monday, June 04, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (१२वीं-कड़ी)


द्वितीय अध्याय
(सांख्य योग - २.६४-७२)


राग द्वेष से जो विमुक्त हो
संसारिक विषयों को भोगता.
कर लेता वश में जो इन्द्रिय,
वह ज्ञानी आनन्द भोगता.


पाता परम शान्ति साधक,
सब दुखों का नाश है होता.
बुद्धि प्रतिष्ठित होती उसकी 
प्रसन्नचित साधक जो होता.


जिसकी इन्द्रिय नहीं संयमित,  
बुद्धि, भावना हीन है वह होता.
शान्ति नहीं मिल पाती उसको, 
कैसे अशांत सुख भागी होगा?


इन्द्रिय सुख के पीछे भागे
उसकी बुद्धि हरण हो जाती.
जैसे तेज हवा नौका को 
जल में खींच दूर ले जाती.


पार्थ! इन्द्रियां हैं जिसकी
निगृहीत विषयों से होती.
ऐसे सन्यासी की बुद्धि
पूर्णमेव प्रतिष्ठित होती.


होती निशा सर्व जन को जब, 
आत्म संयमी तब जगता है.
होती रात्रि सर्वग्य मुनि को,
जब जग में प्राणी जगता है.


नदियाँ हैं जल भरती रहतीं,
पर सागर कब मर्यादा तजता.
स्थिर मन ही शान्ति है पाता,
कामी जन न शान्ति है लभता.


सभी कामनाओं को तज कर,
भोगों के प्रति जो निस्पृह होता.
अहंकार, मोह विहीन वह ज्ञानी 
परम शान्ति अधिकारी होता.


ब्रह्मनिष्ठ मन की यह स्थिति,
इसे प्राप्त कर मोह न होता.
मृत्यु पूर्व कुछ क्षण स्थित हो 
ब्रह्म लीन वह जन है होता.


..... द्वितीय अध्याय समाप्त 
                   
                 .......क्रमशः


कैलाश शर्मा 

Friday, June 01, 2012

पोटली

आए थे जब 
खाली थे हाथ
न बोझ कोई 
कन्धों पर.


ज़िंदगी की राह में 
सभी की खुशी
और चाहतें करने पूरी
बढ़ाते रहे बोझ
कंधे की पोटली का.
नहीं महसूस हुआ भार
इस आशा में 
कि कर लेंगे साझा
सब कंधे 
भार इस पोटली का.


लेकिन आज 
इस सुनसान अकेलेपन में
जब दिखाई नहीं देता
कोई कंधा आस पास,
महसूस होता है 
और भी भारी
पोटली का भार 
कमजोर झुके कन्धों पर.


उठाना होता है
अपनी पोटली का भार
अपने ही कन्धों पर.
नहीं है अब दस्तूर
जीते जी 
बांटने का बोझ
झुके कमजोर कन्धों से,
और झटक देते हैं 
रखने पर हाथ कंधे पर
अपने भी.
लेकिन मरने पर 
उठा लेते हैं भार
कंधे गैरों के भी.


कैलाश शर्मा