Saturday, March 30, 2013

‘उजले चाँद की बेचैनी’- भावों की सरिता


   अपनी शुभ्र चांदनी से प्रेमियों के मन को आह्लादित करता, चमकते तारों से घिरा उजला चाँद भी अपने अंतस में कितना दर्द छुपाये रहता है इसका अहसास विजय कुमार सप्पत्ति जी ने अपने प्रथम काव्य-संग्रह "उजले चाँद की बेचैनी" में बहुत शिद्दत से कराया है. प्रेम के विभिन्न आयामों को अपने में समेटे भावों की सरिता कहीं निर्द्वंद उद्वेग में बहा ले जाती है तो कहीं कोमल अहसासों के कलकल बहते स्वर मन को असीम शान्ति देते हैं, और मन इस सरिता के तट को कभी अलविदा नहीं कहना चाहता.
    कितनी भी कोशिश करें लेकिन यादों के गलियारों से बाहर निकलना कहाँ संभव होता है और व्याकुल कर ही जाती है 
    ‘उजले चाँद की बेचैनी
    अनजान तारों की जगमगाहट
    बहती नदी का रुकना
    और रुके हुए जीवन का बहना
    ...और फिर तुम्हारी याद.’

     प्रेमिका से मिलन का अहसास, अधूरे प्रेम की कशिश, अपनों से दूर होने का दर्द कविताओं में गहराई से मुखर हुआ है. “सलवटों की सिहरन” स्मृतियों की व्यथा की चरम स्थिति का अहसास कराती है जिसका कोई अंत नहीं है क्यों कि  
    ‘मन पर पर पडी
        सलवटें खोलने से नहीं खुलती
        धोने से नहीं धुलती.’

    प्रेम के मौन अहसास को नाम की तलाश में कविमन, “यादें” एक धरोहर के रूप में संभाले हुए है जिनमें झाँक कर अपने दर्द को हरा कर लेता है आगे बढ़ने के लिए
    ‘कौन कहता है
    कि
    यादें पुरानी होती हैं...!’

    कवि ने अपनी रचनाओं में प्रेम को एक असीम ऊंचाई दी है जो ज़िस्मानी हदों से बहुत ऊपर है. ‘नई भाषा’ जहां प्यार की एक नयी उन्मुक्त भाषा को जन्म देती है
    ‘जिसमें प्रेम से भरी मुक्तता और निकटता का ही स्थान था
    और था स्थान उस मौन का जिसमें
    प्रेम से भरे शब्द मुखर हो उठते थे.’,
    वहीं उस भाषा को फिर से न सुन पाने का दर्द और तलाश उस अहसास की “तेरा नाम क्या है प्रेम”.

    “सर्द होठों का कफन” बिछुड़ने के दर्द और फिर मिलन उसी मोड़ पर मौन आँखों से, अहसासों की एक उत्कृष्ट अभिव्यक्ति है जो नम कर जाती है आँखों को
    ‘आज उम्र के अँधेरे उसी मोड़ पर हमें ले आये हैं
    जिस मोड़ पर हम अलग हुए थे और
    जिस पल में एक-दूजे को
    हमने सर्द होठों का कफन ओढ़ा था.’
    लेकिन फिर भी कवि मन को एक विश्वास है मिलन का “और सफर अभी भी जारी है” उस राह पर
    ‘कुछ मेरा यकीन, कुछ तेरी चाहत
    कुछ मेरी चाहत और तेरा यकीन
    हम सफर पर निकल पड़े...’

    अपने अस्तित्व की तलाश में भटकती नारी जो आज भी केवल एक देह बनकर रह गयी है के अंतर्मन की व्यथा को उकेरती कविता “स्त्री : एक अपरिचिता” अंतस को गहराई तक उद्वेलित कर देती है.
    ‘तुम याद रख सके तो सिर्फ एक पत्नी का रूप
    और वो भी सिर्फ शरीर के द्वारा ही
    क्योंकि तुम्हारा मन मेरे तन के आगे
    किसी और रूप को जान ही नहीं पाता है’
    और अपने आप को जीवन भर एक पुरुष की इच्छाओं को समर्पित करके भी पाती है अपने लिए एक अनजानापन, लेकिन सहती है सब कुछ क्योंकि वह ‘एक स्त्री जो’ है. कविता “देह” और “जिस्म का नाम” नारी की आंतरिक व्यथा की बहुत सशक्त अभिव्यक्ति हैं और एक मौन आह्वान इस व्यवस्था के खिलाफ़ खड़े होने का.

    रोज़ी रोटी और अपने सपनों की तलाश में शहर की भीड़ में खोया हुआ आदमी सब कुछ भौतिक सुविधाएँ प्राप्त करके भी अपने आपको अकेला पाता है और एकांत पलों में माँ और माटी, जो बहुत पीछे छूट गए, की यादें आँखों को नम कर जाती हैं. “माँ”, “तलाश” और “मां का बेटा” रचनायें इस दर्द को बहुत गहराई से अभिव्यक्त करती हैं.
    ‘मेरी मां क्या मर गई...
    मुझे लगा मेरा पूरा गांव खाली हो गया
    मेरा हर कोई मर गया
    मैं ही मर गया...’
    
  “ज़िंदगी, रिश्ते और बर्फ़” में रिश्तों में ज़मी बर्फ़ कवि मन को व्यथित कर देती है और अपना “सलीब” अपने कंधे पर उठाये कह उठता है
    ‘मैं देवता तो नहीं बनना चाहता
    पर कोई मेरी सलीब भी तो देखे
    कोई मेरे सलीब पर भी तो रोये.’

    बहुमुखी प्रतिभा के धनी विजय जी का दार्शनिक और चिन्तक   रूप “एक नज़्म : सूफी फकीरों के नाम” और "रूपांतरण” में बखूबी उभरा है.

    प्रेम एक शाश्वत और उदात्त भाव है और जब यह स्थूल लौकिक धरातल से ऊपर उठ जाता है तो एक अतीन्द्रिय, अलौकिक रूहानी धरातल पर पहुँच कर एक ऐसी विरह की कशिश पैदा करता है जहाँ मिलन और वियोग एकाकार हो जाते हैं. इसी रूहानी प्रेम की उदात्त भावना और दर्द, काव्य-संग्रह के एक एक शब्द में बहता हुआ अंतर्मन को भिगो जाता है, लेकिन फिर भी उन भावों से बाहर निकलने की इच्छा नहीं होती. प्रेम की भावनाओं से सराबोर एक संग्रहणीय काव्य-संग्रह के लिए विजय जी को हार्दिक बधाई.

    पुस्तक मंगाने के लिए संपर्क कर सकते हैं:

           1)  बोधि प्रकाशन,
          F.77, Sector 9, Road No.11,
          Karatarpura Industrial Area,
          Baais Godown,
        Jaipur 302006

         2)  Shri Vijay Kumar Sappatti,
     Flat No.402, 5th Floor, Pramila Residency,
     House No. 36-110/402, Defence Colony,
     Sainikpuri Post,
     Sikandarabad-94
     Mob: +91-9849746500
     E-mail: vksappatti@gmail.com 

Monday, March 25, 2013

अब होली में रंग नहीं है


नहीं फाग के स्वर आते हैं,
ढोलक ढप हैं मौन हो गए,
अब उत्साह नहीं है मन में
अब होली में रंग नहीं है.

न मिठास बाक़ी रिश्तों में,
मिलते हैं गले अज़नबी जैसे,
रंग गुलाल हैं पहले ही जैसे
प्रेम पगे पर रंग नहीं हैं.

महंगाई सुरसा सी बढ़ती,
है गरीब की थाली खाली,
कैसे ख़ुमार छाये होली का
जब गिलास में भंग नहीं है.

गुझिया का खोया मिलावटी,
मुस्कानें बनावटी लगतीं,
आगे बढ़ते हाथ हैं मिलते,
दिल में पर उमंग नहीं है.

शहरों की सडकों पर टेसू
पैरों तले हैं कुचले जाते,
काले पीले चेहरे के रंग में
भौजी का वह रंग नहीं है.

एक बार लौट सकें पीछे
एक बार वह होली पायें,
ख़्वाब कहाँ हो सकते पूरे
अब वे साथी संग नहीं हैं.

*****होली की हार्दिक शुभकामनायें*****

कैलाश शर्मा

Friday, March 22, 2013

क्षणिकाएं


   (१)
ज़िन्दगी की क़िताब      
पीले पड़ गए पन्ने 
चाहता हूँ पढ़ना
एक बार फ़िर.

लगता है डर
पलटने में पन्ने,
कहीं बिखर न जायें
भुरभुरा कर
और बिखर जायें यादें
फिर चारों ओर.

   (२)
मत उछालो       
मेरे अहसासों को
समझ पत्थर,
ग़र टूटे फ़िर  
चुभने लगेंगे दिल में
किरचें बन कर.

   (३)
अब मेरे अहसास
न मेरे बस में,
देख कर तुमको
न जाने क्यूँ
ढलना चाहते 
शब्दों में.

   (४)
 तुम्हारा मौन
उठा देता तूफ़ान
मन के शांत सागर में,
अब तो कर दो
इसे मुखर
कुछ पल को.

   (५)
डूब रहा अंतर्मन           
मौन के समंदर में,
अब तो प्रिय कुछ पल को
मौन मुखर होने दो.

...कैलाश शर्मा 

Tuesday, March 19, 2013

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (४७वीं कड़ी)

मेरी प्रकाशित पुस्तक 'श्रीमद्भगवद्गीता (भाव पद्यानुवाद)' के कुछ अंश: 

        ग्यारहवाँ अध्याय 
(विश्वरूपदर्शन-योग-११.३५-४६


संजय: 
राजन, केशव वचनों को सुनकर
किया प्रणाम था कंपित कर से।
नमस्कार पूर्वक था अर्जुन बोला 
भय और हर्ष से रुधित गले से.  (११.३५)


अर्जुन:
सुनकर कीर्ति आपकी भगवन 
न केवल मैं, यह विश्व है हर्षित.
राक्षस भाग रहे सब भय से,
और सिद्धगण नमित व हर्षित.  (११.३६)

क्यों न नमन ये करें आपको,
आप तो ब्रह्मा से महान हैं.
आप ही अक्षर हैं परमेश्वर 
सत् व असत् व परे आप हैं.  (११.३७)

आदि देव व पुराण पुरुष हैं
परम निधान आप ही जग के.
आप ही ज्ञाता, आप ज्ञेय हैं,
व्याप्त हैं कण कण में जग के.   (११.३८)

आप ही अग्नि यम वायु वरुण हैं,
आप प्रजापति, प्रपितामह आप हैं.
सहस्त्र नमस्कार आपको भगवन,
बारंबार आपको प्रभु नमस्कार हैं.  (११.३९)

सर्व दिशा से नमन आपको,
सामर्थ्य आपकी प्रभु अनंत है.
व्याप्त किये हैं सर्व जगत को,
आप अतः प्रभु सर्व रूप हैं.  (११.४०)

हे कृष्ण यादव मित्र संबोधन
सखा आपको मान मैं बोला.
महिमा से अज्ञान हे भगवन! 
मैं यह प्रमाद, प्रेमवश बोला.  (११.४१)

हास परिहास या दिनचर्या में 
किया हो यदि अपमान आपका.
हे अच्युत! हे अप्रमेय! आपसे  
मैं उन सब की क्षमा मांगता.  (११.४२)

पिता समस्त चराचर जग के,
पूज्यनीय, गुरुओं के गुरुवर.
नहीं समान तीनों लोकों में,
कैसे संभव अन्य श्रेष्ठतर?  (११.४३)

करके प्रणाम दंडवत स्वामी
मैं हूँ आपकी कृपा चाहता.
मेरे अपराध क्षमा कर दीजे
जैसे पिता मित्र प्रिय करता.  (११.४४)

कभी किसी ने न जो देखा 
रूप देखकर हर्षित मन मेरा.
मुझे वह पहला रूप दिखायें 
भय से विचलित है मन मेरा.  (११.४५)

मुकुट गदा चक्र से शोभित
रूप मुझे भगवन दिखलायें.
हे विश्वमूर्ते! हे सहस्त्रबाहो!
रूप चतुर्भुज मुझे दिखायें.  (११.४६)


                   ..........क्रमशः


पुस्तक को ऑनलाइन ऑर्डर करने के लिए इन लिंक्स का प्रयोग कर सकते हैं :
1) http://www.ebay.in/itm/Shrimadbhagavadgita-Bhav-Padyanuvaad-Kailash-Sharma-/390520652966
2) http://www.infibeam.com/Books/shrimadbhagavadgita-bhav-padyanuvaad-hindi-kailash-sharma/9789381394311.html 

कैलाश शर्मा 

Friday, March 15, 2013

शब्दों की पोटली


                                                         (चित्र गूगल से साभार) 
शब्द थे खो जाते
भाव के बवंडर में
और रह जाता खड़ा
बन के मौन पुतला
तुम्हारे सामने.

सोचा बाँध कर रख दूं
एक पोटली में
उन शब्दों को
जो कह न पाया,
और सौंप दूँ तुम्हें
तुम्हारे आने पर.

तुम्हारी मंज़िल की राह 
नहीं जाती अब इस गली से,
आज भी खड़ा हूँ
प्रतीक्षा में दरवाज़े पर
लेकर शब्दों की पोटली
जो कुलबुला रहे हैं
बाहर आने को.

कैलाश शर्मा 

Friday, March 08, 2013

हाइकु (अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर)


  (१)
स्त्री का सम्मान
पुरुषत्व की शान
कब जानोगे?
  
  (२)
नारी दिवस
तब बने सार्थक
रोज़ दो मान.
   
   (३)
न होती जो माँ
कहाँ होता अस्तित्व,
वह भी है स्त्री.

   (४)
नहीं अबला
आज की यह नारी,
कल से डरो.

  (५)
नारी का मान
बनाता घर स्वर्ग
आज़मा देखो.
   
  (६)
आने दो बेटी
करोगे महसूस
क्या होता प्यार.

  (७)
न हो दोषी माँ
बेटी के होने पर
आये वो दिन.

कैलाश शर्मा 

Wednesday, March 06, 2013

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (४६वीं कड़ी)

मेरी प्रकाशित पुस्तक 'श्रीमद्भगवद्गीता (भाव पद्यानुवाद)' के कुछ अंश:

        ग्यारहवाँ अध्याय 
(विश्वरूपदर्शन-योग-११.२६-३४

सब धृतराष्ट्र पुत्र व राजा
भीष्म द्रोण कर्ण परमेश्वर!
साथ हमारे पक्ष के योद्धा
करते प्रवेश आप मुख अंदर. 

विकराल आपके मुख में
शीघ्र दौड़ प्रवेश कर रहे.
कुछ दांतों के बीच फंसे हैं
कुछ के सिर हैं चूर हो रहे.  (11.26-27)

वेगवती नदियों की धारा 
जैसे होतीं प्रविष्ट सागर में.
वैसे ही मृत्युलोक के योद्धा
होते प्रविष्ट आपके मुख में.  (11.28)

जैसे जलती हुई आग पर 
मरने हेतु पतंगे आते.
वैसे ही स्वविनाश के हेतु
सर्वलोक हैं मुख में जाते.  (११.२९)

अपने जलते हुए मुखों से
सब लोकों को निगल रहे हैं.
अपनी तेज प्रभा से विष्णु
सर्व जगत को जला रहे हैं.  (११.३०)

कौन आप रौद्र रूप वाले हैं?
हे देव श्रेष्ठ!प्रणाम में करता.
क्या है प्रयोजन इस चेष्टा का
आदि पुरुष मैं नहीं जानता.  (११.३१)

श्री भगवान 

महा काल लोक नाशक हूँ
लोक संहार प्रवृत्त हुआ मैं.
बिना तुम्हारे भी न बचेंगे 
सम्मुख खड़े सभी योद्धायें.  (११.३२)

शत्रु जीतकर राज्य को भोगो
उठो, युद्ध कर यश को पाओ.
मार चुका हूँ मैं इन सब को,
तुम निमित्तमात्र बन जाओ.  (११.३३)

स्वयं मार चुका मैं पहले ही 
द्रोण, भीष्म, कर्ण वीरों को.
जीत युद्ध तुम निश्चय लोगे
डरो न,तुम मारो अब इनको.  (11.34)


                    ..........क्रमशः


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2) http://www.infibeam.com/Books/shrimadbhagavadgita-bhav-padyanuvaad-hindi-kailash-sharma/9789381394311.html 

कैलाश शर्मा